एक अच्छा शासन व्यावस्था का सूचक है व्यवस्था में समाज की हिस्सेदारी; इस हिस्सेदारी का मतलब यह अहसास बनाए रखना है कि राज्य समाज से ऊपर नहीं है. सत्ता में लोगों की सहभागिता की वकालत करते समय हम मानते हैं कि समाज को किसी भी गलत व्यवहार के खिलाफ निर्णय लेने का अधिकार भी होगा. उड़ीसा के नियमागिरी क्षेत्र में आदिवासी जिस पहाड़ को पूजते हैं और जिससे उनकी खाद्य और आजीविका सुनिश्चित होती है, बाक्साईट के लिए उस पहाड़ को मिटाने की योजना बन गयी क्योंकि विकास होना है. लोगों ने विरोध किया तो उन्हे राष्ट्र विरोधी और नक्सलवादी कह कर अपराधी करार दिया गया. आखिर में सर्वोच्च न्यायलय ने संविधान की लाज रही और कहा कि ग्राम सभाएं तय करेंगी कि वहाँ खनन होगा या नहीं; आखिर में सभी १२ ग्राम सभाओं ने खनन के विरोध में प्रस्ताव पारित किया. यह एक उदहारण है कि विकास के नाम पर सरकार के काम लोगों के खिलाफ जा रहे हैं.
वर्ष २००६ में हमारी संसद ने एक और क़ानून बनाया – वन अधिकार क़ानून; यह क़ानून इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि इसमे सरकार ने माना था कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक रूप से अन्याय होता रहा है और उनसे उनके संसाधन छीने जाते रहे हैं. वे हज़ारों साल से जिस जमीन पर रहते हैं, उन जमीनों को पहले अंग्रेजों और बाद में भारत की सरकारों ने कागजों पर गलत नियम – क़ानून बना कर अपने कब्जे में ले लिए और प्राकृतिक अधिकार के बावजूद आदिवासियों और जंगलों में रहने वालों को अतिक्रमणकारी कहा जाने लगा. भारत सरकार ने कहा अब उन्हे जंगल पर अधिकार दिया जायेगा; पर इसके लिए आदिवासी समाज को प्रमाण देकर यह सिद्ध करना था कि कि वह कितने और किस जरूरत के लिए जंगल का उपयोग करता है! जो समाज अपनी ही व्यवस्था में रहता आया हो, जिसमे जंगल या जमीन को निजी संपत्ति न माना हो; उससे कागजी प्रमाणों की मांग की गयी. इसके उलट दूसरी तरफ सरकार के पास हर जिले में हर गांव के बारे में यह जानकारी दस्तावेजी रूप में उपलब्ध है कि संसाधनों का समुदाय कैसा उपयोग करता है? ऐतिहासिक अन्याय से मुक्त करने के मकसद से बनाए गए क़ानून में सरकार ने यह नहीं कहा कि हम उनकी मुक्ति का पहला कदम उठाएंगे और हर दस्तावेज ग्राम सभा को बिना मांगे उपलब्ध करवाएंगे. यही कारण है कि आज भी देश भर में लोगों को केवल ३ प्रतिशत सामुदायिक हक मिल पाए हैं. ऐसे में समावेशी विकास और सहभागिता के मौजूदा चेहरे पर कितना विश्वास किया जाना चाहिए?
भेदभाव अभी भी सबसे बड़ी चुनौती है. पारंपरिक रूप से दलितों के साथ जन्म से लेकर मृत्यु तक छुआछूत की व्यवस्था बनी रही है. स्कूल में बच्चों के साथ भेदभाव, कुएं पर पानी भरने और दलित व्यक्ति को घोड़ी पर चढ़ कर बारात ले जाने तक की अनुमति नहीं रही. आज भी दलित के पास जमीन है भी तो उस पर ऊँची जाति का कब्ज़ा बरकरार है. इसी श्रृंखला में अब भेदभाव का नया रूप जुड़ गया है. श्योपुर जिले के कराहल विकास खंड के एक गांव में १० बच्चे मध्यान्ह भोजन नहीं करते हैं; वे कहते हैं कि हम किसान है. इसी तरह सीहोर में भी अन्य पिछड़ा वर्ग के बच्चे स्कूल का खाना नहीं खाते हैं, क्योंकि दलित महिलाओं का समूह भोजन पकाता है. अब तक ऊँची जातियां दलितों और आदिवासियों को भेदभाव के नाम पर बाहर धकेलती रही हैं; पर अब वे खुद के बहिष्कार की सोची समझी तकनीक के जरिये भेदभाव और ऊँचे-नीचे होने की भावना को बरकरार रखने की दिशा में बढ़ गयी हैं.
इसी दौर में भारत में पंचायतों में महिलों के लिए ५० प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था कर दी गयी; पर २० सालों के अनुभव बताते हैं कि लोगों को सत्ता सौंपने के मकसद से स्थापित विकेन्द्रीकरण की इस व्यवस्था में उन्हे न तो शक्ति संपन्न बनने के लिए प्रशिक्षण की कोई ठोस व्यवस्था की गयी, न ही उनके संरक्षण की कोई व्यवस्था खड़ी की गयी. सहभागिता के नाम पर महिलाओं, दलित और आदिवासियों को एक तरफ आरक्षण दिया गया, तो वहीँ दूसरी तरफ व्यावस्था ऐसे बुनी गयी कि वंचित समुदायों के ये वंचित प्रतिनिधि ऊँची जातियों, ऊँची जातियों के प्रतिनिधियों और नौकरशाही के नए उपनिवेश बन गए. सरकार की उलझावदार व्यावस्था में अच्छे-अच्छे फँस जाते हैं, वहाँ पंचायत सचिवों को ताकतवर बना दिया गया और उन्होंने नौकरशाही के साथ गठजोड़ करके चुने हुए जनप्रतिनिधियों को ऐसा फंसाया कि विकेन्द्रीकरण की सोच पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया. कुल मिला कर बात यह है कि चुने हुए प्रतिनिधियों को सरकार ने क्रियान्वयन के काम में जुटा दिया, अंतिम निर्णय लेने के अधिकार नौकरशाही को दे दिए और ऐसा माहौल बनाया कि पंचायत में जन-सहभागिता का मतलब समुदाय में बिखराव हो गया. मध्यप्रदेश की ग्रामपंचायत अपने सचिव (जिसे लोग मंत्री कहते हैं) को नहीं हटा सकती है न शिक्षक को नहीं हटा सकती है. उन्हे यह अधिकार दिया गया है कि वे सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना के हितग्राहियों का चयन करें; वे २० पात्र लोगों का चयन करते हैं पर सरकार १० लोगों को पेंशन देती है; इससे लोगों के मन में भी पंचायत व्यवस्था के खिलाफ अविश्वास पैदा होता है. जैसे भारत की सरकार और संसद में किसी भी मांग को खारिज करने के कारण नहीं बताए जाते हैं, वैसे ही पंचायत में भी यह किसी को पता नहीं चलता है कि उन्हे समय पर मजदूरी क्यों नहीं मिल रही है या उनके स्कूल में शिक्षक क्यों नहीं है? बस लोगों को चुपचाप स्थिति को “जहाँ है जैसी है” के सिद्धांत पर ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेने की बाध्यता है. यही उनकी राज्य के प्रति जिम्मेदारी है.
राजनीतिक व्यवस्था में सहभागिता सुनिश्चित किये बिना लोकतंत्र में सहभागिता आयेगा; यह कल्पना करना बेमानी है. वर्ष २०१३ में जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं; वहाँ चुनावी प्रक्रियाएं इस बात से तय होती हैं कि किस विधान सभा क्षेत्र में कितने दलित, कितने आदिवासी, कितने मुसलमान और कितने पिछड़ा वर्ग के मतदाता हैं. इसी आधार पर उम्मीदवारी तय होती है. फिर यह देखा जाता है कि जैन, अग्रवाल या यादव कितने हैं!! इन आधारों पर संपन्न होने वाले चुनावों के बाद जो व्यवस्था बनेगी क्या वह समग्र समाज की सहभागिता की पक्षधर होगी?
दो साल पहले भारत की वृद्धि दर ९ प्रतिशत सालाना थी. इस साल अनुमान था कि यह ५.५ प्रतिशत रहेगी, पर अप्रैल २०१३ की पहली तिमाही में वृद्धि दर ४.४ प्रतिशत रही. पिछले कुछ सालों में हमने खूब आर्थिक विकास किया क्योंकि तब हम अपने संसाधनों (खनिज़, जंगल, नदियों और श्रम) का एकसाथ बेतरतीब शोषण कर रहे थे, उन्हे बेंच रहे थे. इससे खूब पैसा आ गया. हज़ारों लाखों साल में इन संसाधनों से संपन्न हुए थे. हमरे विकासकार इन संसाधनों को एक ही बार में उपयोग में ले आना कहते हैं. आप एक कोयला या बाक्साईट निकाल सकते हैं; फिर जब २० से ३० सालों में यह खत्म हो जायेगा तो क्या करेंगे? समाज, खास तौर पर आदिवासी समाज इस लूट का विरोध करता रहा है. वह जानता है कि प्रकृति और इंसान का विकास एक दूसरे पर निर्भर है; परन्तु संसाधनों के शोषण आधारित विकास को लागू करने के लिए सत्ता ने हर तरह के हथियारों का उपयोग किया. अब विकास के बीस सालों के बाद चमक का तारा टूटने लगा क्योंकि सरकार के एजेंडे में प्रकृति का संरक्षण रहा ही नहीं. अगस्त २०१३ में वित्तमंत्री ने इसे साबित भी कर दिया. उन्होंने अर्थव्यवस्था को फिर से विकास की पटरी पर लाने के लिए संसद के सामने १० बिंदुओं की एक कार्ययोजना रखी.; उसमे समाज की प्राथमिकताओं और सहभागिता का कोई जिक्र ही नहीं था. कुछ मामलों में (जैसे नियमागिरी में आदिवासियों के हक) सर्वोच्च न्यायालय की सक्रीय भूमिका को सरकार विकास की राह में रोड़ा मानती है. यानी सरकार आश्वस्त है कि आर्थिक विकास तो बिना सहभागिता के ही होगा; सहभागिता में तो लोग योजना बनायेंगे, प्राथमिकताएं भी वे ही तय करेंगे और निगरानी भी उन्ही की होगी; इससे जिस तबके के हितों को हमारी सरकारें संरक्षित करना चाहती हैं, उनका विकास तो हो ही नहीं पायेगा.
छत्तीसगढ़ में ग्राम सभाओं ने तय किया कि वे इस बात के पक्ष में नहीं हैं कि प्राकृतिक संसाधन कंपनियों और माफियाओं को लूटने के लिए सौंप दिए जाएँ. वे सरकार की विकास की परिभाषा को खारिज कर रहे थे. यदि सहभागिता एक मूल्य है तो उन्हे इसका अधिकार दिया जाना चाहिए था. पर इसके उलट सत्ता ने उनके खिलाफ बंदूकें तान दीं और ६०० गांवों के लोगों को अपनी जगह से बेदखल करके शरणार्थी बना दिया गया. इस व्यवस्था में सहभागिता का सिद्धांत कहाँ लागू होगा?
शासन व्यवस्था का मौजूदा चरित्र ही ऐसा है कि वह लोगों की सहभागिता को पचा ही नहीं सकती. चूँकि लोकतंत्र में सहभागिता का जिक्र होना जरूरी है इसलिए वह इसका भ्रम पैदा कर देती है. इसमे देश का बजट बनाते समय वित्तमंत्री जी कंपनियों और उद्योगपतियों के संगठनों के मंच पर जाकर उनकी बात को सुनते और समझते हैं; पर किसानों, महिलाओं, मजदूरों, आदिवासिओं और दलितों के खुले मंचों पर उन्हे जाने की हिम्मत नहीं होती. अभी सहभागिता का मतलब सत्ता में निर्णायक हिस्सेदारी नहीं है.
About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bhopal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: 00 91 9977704847
[i] This is second and concluding part of a 2 part article on illusion of participation in Indian democracy.
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