आजकल मध्यप्रदेश के चुनावी समर में कुपोषण एक बार फिर प्रमुख चुनावी मुद्दा है| बच्चों के गुमशुदा होने का मुद्दा भी राजनीतिक दलों को रिझा रहा है| बच्चों की शिक्षा वैसे आजकल चर्चा में तो नहीं है लेकिन घोषणा पत्रों और विज्ञापनों का हिस्सा जरूर बन गई है| इसे एक नजर से ऐसे भी कहा जाए कि बच्चे अभी मुख्यधारा में आ गये हैं, लेकिन वास्तव में एसा नहीं है| बच्चों पर काम करने वाले संगठनों ने अपना एक घोषणा पत्र बनाया और उसे उन्होंने राजनीतिक दलों के सुपुर्द किया| राजनीतिक दलों ने आज की कट कापी पेस्ट तकनीक को अपनाया और कई मुद्दों को अपने घोषणा पत्रों में जगह दी| इससे बच्चों के मुद्दे घोषणापत्रों में तो आ गये लेकिन वे वास्तव में हलचल नहीं मचा पा रहे हैं| सभी अपनी जगह खुश होते नजर आ रहे हैं| संस्थाएं/संगठन अपनी पीठ इस बात पर थपथपा रही हैं कि हमारे मुद्दे घोषणा पत्रों में आ गए हैं और पार्टियां भी अपनी पीठ थपथपा रही हैं कि हमने सभी वर्गों के मुद्दों को अपने घोषणा पत्रों में जगह दी है |
पिछले चुनाव 2008 को ही देखें तो हम पाते हैं कि राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्रों में बच्चों के लिए ना तो वायदों की ही कमी थी और ना ही घोषणाओं की| पर स्थिति में बदलाव नहीं हुआ और इस बार भी कमोबेश कुपोषण एक चुनावी मुद्दा है| सवाल यह है कि क्या बच्चों की भूख और कुपोषण के सवाल घोषणा पत्रों में सजाने के लिए हैं या उनसे कोई सरोकार भी है| राष्ट्रीय पोषण संस्थान के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार मध्यप्रदेश में 51 फीसदी बच्चे कम वजन के पाए गए, इसके सीधे मायने है कि प्रदेश का हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। इनमें से भी 8 फीसदी बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित पाए गए हैं। हर साल लगभग 1,25,000 शिशु अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते हैं| शिशु मृत्यु दर में प्रदेश पिछले 10 वर्षों से अव्वल नम्बर पर है, जबकि 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की दर भी बहुत अधिक है| 5 वर्ष तक के बच्चों में टीबी के प्रकरण भी बढते जा रहे हैं और इससे कुपोषण का सीधा सम्बन्ध है।
यही नहीं पिछले 10 वर्षों में शिक्षा के मोर्चे पर भी मध्य प्रदेश के हाल खराब है| शिक्षकों की कमी के मामले में प्रदेश पूरे देश में दूसरे स्थान पर है, शिक्षा के अधिकार कानून के मानकों के आधार पर देखा जाये तो म.प्र. में 42.03 प्रतिशत शिक्षकों की कमी है। बाल श्रमिकों की संख्या दिनों-दिन बढ़ रही है लेकिन प्रदेश सरकार के पास आज तक कोई भी आंकड़े नहीं है| प्रदेश में एक और लाडलियों के पक्ष में सुर आलापे किये जा रहे हैं लेकिन दूसरी और लिंगानुपात गिर गया है| आज प्रदेश में लिगानुपात गिरकर 6 वर्ष तक की उम्र में 918 रह गया है| प्रदेश में लड़कियों के लगातार गायब होने के मामले आ रहे हैं,उन्हें बेचा जा रहा है| पिछले 10 साल में 86170 बच्चे गायब हुए हैं और उनमें से 15432 बच्चे अभी तक नहीं मिले हैं और उनमें से 75 फीसदी लडकियां हैं|
यानी बच्चों के मुद्दे तो जस के तस है बस उन्हें सजाने का काम जारी है| सत्तारूढ़ दल बच्चों को मामा बनकर लूट लेता है और विपक्ष मामा बनाकर| बच्चे जब चाहे मुद्दे बनते हैं और जब चाहे बिसार दिए जाते हैं| जब बच्चों को सहभागिता का अधिकार है तो फिर राजनैतिक दल क्यों नहीं बच्चों से पूछे कि तुम्हारी जरुरत क्या है, तुम्हारे सवाल क्या हैं? और यदि इन सवालों को हल कर दिया जाये तो फिर तुम्हारे मम्मी-पाप, भाई बहन हमें वोट करें| पर हमारा ढांचा ही ऐसा है कि बच्चे परिवार से लेकर समाज और बड़े राजनीतिक धरातलों पर भी हमेशा से किनारे कियी जाते रहे हैं| यह कहानी केवल मध्यप्रदेश की नहीं है बल्कि पूरे देश में यही राजनीतिक माहौल है| बच्चे राजनीतिक धुरी के केंद्र में नहीं हैं|
बच्चों को केवल इसलिए नजरअंदाज किया जाता है क्योंकि वे मतदान नहीं कर सकते हैं| बच्चे विचार के और प्राथमिकता के केंद्र में नहीं है इसका अंदाजा केवल घोषणा पत्रों से नहीं बल्कि इस बात से भी लगाया जा सकता है कि प्रदेश में बजट आवंटन में से केवल 15-17 फीसदी बजट ही बच्चों के लिए है| इस बजट में से भी बाल सुरक्षा पर केवल 1 प्रतिशत बजट ही है| यह बजट भी पिछले एक दो सालों में निरंतर घट रहा है| यही नहीं यदि हम विधानसभा के अंदर देखें तो हम पाते हैं कि 13वीं विधानसभा में पूछे गए कुल 2100 प्रश्नों में से बच्चों से जुड़े मुद्दों पर केवल 44 प्रश्न ही किये गए हैं| यानी यह प्रतिशत कुल प्रश्नों का 2 फीसदी ही है| इसमें से भी बाल सुरक्षा को तरजीह नहीं दी गई है, केवल 3 प्रश्न पूछे गये हैं|
इस चुनावी माहौल में अभी बीच में बाल दिवस भी गुजरा है| राजनैतिक दल चाहते तो इस दिन बच्चों के मुद्दों पर अलग से बाल संसद लगाते और उनके मुद्दों पर बात होती| लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ| पर पप्पू और फेंकू के इस राजनैतिक युग में उन्हें छोटू की चिंता कहाँ ?? बाल अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौते के भी इस वर्ष 24 साल पूरे हो गए हैं और यह दिन भी इसी चुनावी दंगल के बीच आया है लेकिन उस पर भी कोई बैचैनी नहीं दिखी| पूरी कायनात जिसमें कि राजनैतिक दलों के लोग भी शामिल हैं, सचिन के 24 साल के खेल पर वक्तव्य देते नहीं थक रहे हैं, वे बाल अधिकार समझौते के 24 वर्ष पूरे होने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते हैं|
इस पूरे मसले पर मीडिया भी अलग से बच्चों के मुद्दों को देखने की पहल नहीं करती हैं| किसी भी अखबार ने इन चुनावों में अपना कोई अलग पन्ना बच्चों के मुद्दों को समर्पित नहीं किया है| ना ही किसी चेनल ने कोई बहस इन मुद्दों पर छिड़वाई| केवल दूरदर्शन ने ही इस मुद्दे पर बहस छेड़ी क्योंकि वह उसकी नैतिक बाध्यता है| नोबल पुरस्कार विजेता ग्रेबिल मिस्ट्राल ने लिखा है कि हम अनेक भूलों और गलतियों के दोषी हैं और उसमें भी हमारा सबसे बड़ा अपराध है बच्चों को उपेक्षित छोड़ देना | अफ़सोस कि यह हम आज भी कर रहे हैं|
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