INDIA: अधिकारों की छाँव तले झुलसते बच्चे 

बीते हफ़्तों में चुनावी सरगर्मी के बीच अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार दिवस अनजाना सा गुजर गया| संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता 24 वर्ष पहले अस्तित्व में आया | दुनिया के लगभग 189 देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने अपने देश में बच्चों को सुरक्षित और सम्मानपूर्ण वातावरण देने के लिए इस समझौते पर हस्ताक्षर किये | भारत ने भी 1992 में इस समझौते पर हस्ताक्षर किये| इस प्रकार देखें तो भारत में इस समझौते की यह 21वीं सालगिरह थी| ऐसा नहीं है कि इस समझौते के पहले हमारे देश में बच्चों की परवाह किसी ने नहीं की| हमारे संविधान में बच्चों के संदर्भ में बहुत स्पष्ट प्रावधान हैं| लेकिन बच्चों को स्वतंत्र इकाई के रूप में परिभाषित करने और उनके मुद्दों को व्यापकता में इस समझौते ने बखूबी देखा| समझौते ने 54 अधिकारों को 4 प्रमुख अधिकारों के इर्द-गिर्द बुना और उस झरोखे से बच्चों के मुद्दों को तरजीह दिलाने की कोशिश की| यह अधिकार हैं जीवन का अधिकार, विकास का अधिकार, सुरक्षा का और सहभागिता का अधिकार|

आज सवाल यह है कि क्या हम आजादी के बाद से अभी तक या इस समझौते के इन 21 वर्षों बाद भी बच्चों के संदर्भ में कुछ सार्थक कदम बढ़ा पाए हैं या नहीं| स्वभावतः हाँ| हमने बच्चों के सन्दर्भ में कुछ कानून पास बनाए हैं, नीतियाँ बनी हैं लेकिन हम इस दिशा में उतने आगे नहीं बढ़ पाए जितना हमें बढना चाहिए था| हम आज तक देश में बच्चे की एक परिभाषा नहीं बना पाए हैं कि जब हम बच्चा कहेंगे तो हमारे सामने कौन सी तस्वीर आएगी ? हमारे समय का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह भी है कि हम बच्चों को आज तक एक स्वतंत्र इकाई के रूप में नहीं देख पाए। बच्चे, आज के समय में उपेक्षा का जीता जागता दस्तावेज हैं। बच्चे हमेशा से ही प्राथमिकताओं से छूटते रहे। नोबल पुरस्कार विजेता ग्रेबिल मिस्ट्राल ने लिखा है कि हम अनेक भूलों और गलतियों के दोषी हैं और उसमें भी हमारा सबसे बड़ा अपराध है बच्चों को उपेक्षित छोड़ देना | अफ़सोस कि यह हम आज भी कर रहे हैं|

यदि हम एक-एक अधिकारों को ही अलग से देखें तो हम इस दिशा में कुछ ठोस बात कर पायेंगे| हर साल भारत में लगभग 20 लाख शिशु आज भी अपन पहला जन्मदिन नहीं मना पाते हैं| आज भी माताओं को प्रसव पूर्व मिलने वाली तीन जांचों का प्रतिशत हम 50 के पार नहीं पहुंचा पाए हैं| राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के तृतीय चक्र के आंकड़ों के मुताबिक़ हम आज भी सभी टीकाकरण वाले बच्चों का प्रतिशत 40 से ज्यादा नहीं बढ़ा पाए हैं| देश में 6 वर्ष से कम उम्र के 42 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं| विकास की दृष्टि से देखें तो हम आज तक आधे बच्चों की शिक्षा का ही इन्तेजाम कर पाए हैं| हमारे संविधान में ही हमने कहा था कि हम अगले 10 वर्षों के भीतर सभी बच्चों को शिक्षा से जोड़ेंगे, पर आजादी के 67 साल बाद आज तक हम सभी बच्चों को शिक्षा से नहीं जोड़ पाए| जिन बच्चों को शिक्षा मिल भी रही है, उसके साथ गुणवत्ता का संकट बरकरार है| हमने बच्चों को सूचनाओं में हिस्सेदार नहीं बनाया है, सूचना के अधिकार में भी बच्चों के लिए कोई प्रावधान नहीं है| बच्चों को सूचना का धिक्कार है|

आज भारत में सबसे ज्यादा बाल श्रमिक हैं और इस मामले में हमने अपने पडोसी देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश को भी पीछे छोड़ दिया है| बच्चे कांच फेक्टरियों, पटाखा बनाने वाली फेक्टरियों में काम करते हैं| भारत में गुमशुदा बच्चों की तादाद दिनों-दिन बढ़ रही है| हर साल देश में तकरीबन 11 लाख बच्चे गायब हो रहे हैं| लाखों बच्चे सड़कों पर रह रहे हैं| बच्चे सशस्त्र संघर्षों में खपाए जा रहे हैं| जाति और समुदाय आधारित भेदभाव, लिंग आधारित भेदभाव से आज भी बच्चों को मुक्त नहीं करा पाए हैं| मध्यप्रदेश में सरकारी कार्यक्रम के तहत स्कूलों में एक धर्म विशेष की ओर बच्चों को धकेलने के प्रयास जारी हैं|

सहभागिता की दृष्टि से देखें तो हम आज तक बच्चों के लिए कोई एसा मंच विकसित नहीं कर पाए हैं जहाँ पर बच्चे निर्बाध रूप से अपनी बात रख सकें| और तो और आज कई स्कूल बाल सभा तक बंद करने पर उतारू हैं| हम आज भी स्कूलों या किसी भी सार्वजनिक स्थलों पर बच्चों के लिए पोडियम तक नहीं बना पाए हैं| और तो और हम आज तक सार्वजनिक स्थलों पर बच्चों के लिए पृथक और सुविधाजनक मूत्रालय तक नहीं बना पाए हैं ? या तो मूत्रालय बड़ों के लिए होते हैं या होते ही नहीं हैं|

हम बच्चों को अनजाने में नहीं बल्कि जानकर कैसे छोड़ते हैं उसके लिए यह उदाहरण देना जरुरी है| विस्थापन हमारे दौर की सबसे भीषण त्रासदी है। विस्थापन होगा तो पुनर्वास करना ही होगा | मध्यप्रदेश में आदर्श पुनर्वास नीति बनी हुई है। पर अफ़सोस कि इस पुनर्वास नीति में बच्चों के सवाल तो दूर, इसमें च्चा शब्द तक नहीं है|यानी बच्चों को भी वयस्कों के साथ गिन लिया गया और उनके मुद्दे बिसार लिए गए। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश में चुटका परमाणु विद्युत परियोजना की चर्चा बड़ी गरम है और उसमें कई गाँव हटने वाले हैं, उस परियोजना के दस्तावेजों में ना तो बच्चों पर पड़ने वाले प्रभावों का अलग से कोई अध्ययन किया गया है, यहाँ तक कि बच्चों की संख्या तक का कोई उल्लेख उसमें नहीं मिलता है| यानी बच्चे हमारे लिए कोई मायने नहीं रखते हैं |

बाल अधिकारों के इस तरह के मखौल उड़ने और बच्चों को लगातार हाशिये पर रखे जाने के संदर्भ में हमें लगता है कि बच्चों को अधिकार जरूर दिए गए हैं लेकिन दरअसल वे हाथी के दांतों की तरह ही हैं| जब तलक इन अधिकारों को सुनिश्चित करने वाली मशीनरी बच्चों के नजरिये से काम नहीं करेगी| जब तक इन अधिकारों को सुनिश्चित कराने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होगी तब तक बच्चे यूँ ही उपेक्षित होते रहेंगे| बड़े अफसोस की बात है कि इतने सालों बाद भी आज राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में बच्चों का मुद्दा शामिल करने के लिए सिविल सोसाइटी को मशक्कत करनी पड़ती है, जैसे कि बच्चे सिर्फ सिविल सोसाइटी का ही मेंडेट है| क्‍या आबादी के इतने बड़े हि‍स्‍से को केवल इसलि‍ए उपेक्षि‍त रखा जाएगा, क्‍योंकि‍ एक मतदाता के रूप में उनकी राजनीति‍क भागीदारी नहीं है ?

तमाम छोटे-बड़े, उल-जलूल मुद्दों पर बहस मुबाहिसे करने वाली मीडिया भी बच्चों के पक्ष में आवाज बुलंद करने में कोताही बरतती है | कई अखबार समूह कहते हैं कि बच्चे हमारा टीजी नहीं है| सचिन तेंदुलकर के 21 साल इस मीडिया को याद रहते हैं लेकिन बाल अधिकार समझौते के 21 साल इस मीडिया की ना तो नजर में हैं और ना ही प्राथमिकता में| क्या यह जरुरी नहीं था कि कोई मीडिया हाउस इस दिन इस गंभीर मुद्दे पर बहस छेड़ता? दूरदर्शन को छोड़कर किसी भी चेनल ने इस दिन के लिए कोई भी कार्यक्रम अलग से आयोजित नहीं किया? मुझे लगता है बाल अधिकार दिवस के प्रकाश में ही सही बच्चों के मुद्दों पर सार्थक बहस छेड़ने की तत्काल आवश्यकता है| 

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Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-140-2013-HI
Countries : India,