माननीय उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन और ए.के. सिकरी की युगल पीठ ने अक्टूबर 2013 में यह टिपण्णी देकर कि ‘किन्नर समाज में आज भी अछूत बने हुए हैं। आमतौर पर उन्हें स्कूलों और शिक्षण संस्थानों में दाखिला नहीं मिलता। उनके लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है’, तीसरे लिंग के अस्तित्व और बहिष्कार की बहस को फिर से चर्चा में ला दिया है | सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सांविधिक निकाय राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण(नालसा) की ओर से दायर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सामने आई| याचिका में किन्नरों के लिए पुरुष और महिला के इतर एक अन्य श्रेणी बनाने की मांग की गई है। साथ ही उन्हें पुरुषों व महिलाओं की तरह ही समान सुरक्षा व अधिकार देने की भी मांग की गई है।
नालसा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह दलील दी कि किन्नरों और तीसरे लिंग के सभी व्यक्तियों को न्यायिक और संवैधानिक पहचान दी जानी चाहिए। इसके बाद राज्य सरकारें इनकी बेहतरी के लिए जरूरी कदम उठा सकेंगी। सरकार ने इनके लिए एक टास्क फोर्स का गठन भी किया है, जो आगे इनके लिए बेहद मददगार साबित होगी। उन्होंने किन्नरों को नौकरियों में आरक्षण देने की भी मांग की।इससे पहले सुप्रीम कोर्ट किन्नरों को तीसरी श्रेणी का नागरिक घोषित करने की मांग करने वाली जनहित याचिका पर केंद्र व राज्य सरकारों को अपना पक्ष साफ करने का भी निर्देश सुना चुकी है।
इस समुदाय के विषय में सोचें तो हम पायेंगे कि अपने घरों में बच्चा पैदा हो, शादी ब्याह हो या फिर कोई और शुभ काम| यदि उस काम में किन्नर या हिजड़ा समुदाय के लोग आ जाएँ तो गा- बजाकर दुआ दे जाएँ तो इसे बड़ा शुभ माना जाता है| इनके गाने बजाने के बदले में इन्हें पैसे और उपहार आदि दिया जाता है| लेकिन मौक़ा ख़तम होने के बाद यही समाज इन्हें अपने पास तक बैठाना पसंद नहीं करता है| न राशन कार्ड, न जाब कार्ड और न आधार कार्ड, न पासपोर्ट, न लाइसेंस यानी समस्त बुनियादी सुविधाओं से मरहूम है यह समाज| इनका तो ले-देकर एक समुदाय ही है और वही इनका सामाजिक ताना-बाना है| अपने परिवार में, समाज में तो यह हाशिये पर हैं ही या यूँ कहें कि शर्म का विषय हैं पर इनके साथ हो रही सरकारी बेरुखी भी कम नहीं|
पिछले 4000 सालों से अपने अस्तित्व के प्रमाण के साथ-साथ रामायण, महाभारत, बाइबिल आदि धर्मग्रंथों और कामसूत्र जैसे शास्त्र में भी अपने होने का प्रमाण देते देते इस वर्ग के पास आज भी जन्म प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज नहीं है| पर सरकारी बेरुखी का आलम यह भी है कि अभी तक इस समुदाय की भारत में आधिकारिक गिनती नहीं है| कुछ सामाजिक सर्वेक्षणों की मानें तो हम पाते हैं कि इनकी संख्या कुछ 19 लाख के आसपास है| सरकारी आंकड़े न होने के कारण भारत में इनके अल्पसंख्यकों के अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं| हालांकि जनगणना 2011 में अन्य की श्रेणी में इन्हें स्थान मिला है लेकिन अभी तक इसके नतीजे नहीं आये हैं जिसके चलते अभी तक इनकी कोई संख्या नहीं है| इन्हें जनगणना 2011 में इन्हें कोड 3 कहा गया है|
एक बड़ा सच तो यही है कि हम इनके विषय में कुछ जानते ही नहीं हैं| हमें यह नहीं पता कि किन्नर कौन है और हिजड़ा कौन? और ऐसे में हम जाने अनजाने ही किन्नर, हिजड़ा आदि को ही तीसरे लिंग का संसार मान लेते हैं जबकि ऐसा नहीं है | ये परलैंगिंक समलैंगिक, उभयलैंगिक या लैंगिक हो सकते हैं| कई बार हम ट्रांसजेंडर और ट्रांससेक्सुअल जैसे दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं, जबकि ये दोनों बिलकुल भिन्न हैं| ट्रांसजेंडर प्राकृतिक लिंग से अलग पहचान रखते हैं जबकि ट्रांससेक्सुअल वे हैं जिन्होंने लिंग चिकित्सकीय सहायता से बदल किया है| हम यह भी नहीं जानते हैं कि इनकी शारीरिक संरचना क्या है| इस समुदाय के अपने नियम/कायदे/कानून क्या हैं? इनकी आजीविका के साधन क्या हैं? इनकी अपनी बिरादरी का ताना-बाना क्या है? गुरु-शिष्य परम्परा में गुरु कौन होता है और शिष्य कौन? इनके जीवन का दर्द इनकी मृत्यु के बाद होने वाली रस्मों से भी साफ झलकता है। इनका अंतिम संस्कार आधी रात को होता है। उससे पहले शव को जूते-चप्पलों से पीट-पीट कर दुआ मांगी जाती है कि ऐसा जन्म फिर ना मिले।
आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि ये लोग अपने ही साथी के मरने के बाद उसे जूते- चप्पलों से मारें??
जरा सोचिये कि यदि ये नाचे गायें नहीं तो इनका क्या होगा? क्या हम आज तक इनके लिए सम्मानजनक आमदनी का जरिया उपलब्ध करा पाए हैं| नहीं? तीसरे लिंग का कोई व्यक्ति मजदूरी करने के लिए जाए तो वह क्या काम करेगा या करेगी, यह शायद बाद का विषय होगा लेकिन इसके पहले वह तो कौतूहल का विषय ज्यादा होगा| इसी कारण ये लोग मजदूरी तक नहीं कर सकते हैं? जब काम नहीं करते तो फिर खायेंगे क्या, यह सवाल चिंताजनक है| राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण और अन्य कई सर्वेक्षण अलग-अलग समुदाय के लोगों और पेशों में काम करने वाले लोगों के आंकड़े तो जुटाते हैं लेकिन यह एक सवाल है कि इन सर्वेक्षणों मी जद में यह पेशा क्यों नहीं है? यदि गरीबी रेखा इस देश का यथार्थ है तो फिर ये लोग इन लोगों के लिए कोई रेखा क्यों नहीं? क्या इनके लिए न्यूनतम मजूरी के मापदंड नहीं बनाये जाने चाहिए? यदि इन सब का जवाब हाँ में है तो भी इनके लिए अभी तक कोई पहल नहीं की गई है| यदि ये कहीं स्वरोजगार के लिए पहल करना चाहें तो भी बैंक इनकी स्थाई आमदनी न होने के कारण इनको कहीं ऋण नहीं देते हैं| और बैंक के दस्तावेजों में भी अभी तक महिला/पुरुष के अलावा तीसरे लिंग के लिए कोई स्थान नहीं है| सरकारी नौकरियों में इनके लिए कोई आरक्षण नहीं है, इनके कौशल विकास के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है और कोई आर्थिक सहयोग भी नहीं|
बम्बई में 2001 में बैंकर श्री शेट्टी ने बैंक द्वारा दिए गए कर्ज को वसूलने के लिए इस समुदाय को काम देने की पहल की थी| तत्कालीन समय में यह बहुत ही सराहनीय प्रयास रहा| बिहार सरकार ने भी 2006 में टेक्स कलेक्टर के रूप में इनसे काम लिया था| इन दोनों व इस तरह के कामों ने इनको काम तो दिलाया| यह काम हटकर भी था लेकिन यह अधिकार के रूप में नहीं आया, बल्कि इस काम को ऐसे भी देखा गया कि ये तो पैसा निकाल ही लायेंगे| यानी इनकी विकलांगता को ढाल बनाया गया| जबकि इनकी मांग भी ऐसे नहीं है और ना ही अधिकार आधारित व्यवस्था इसकी इजाजत देती है| हालाँकि इनके तरह के कामों को लेकर बैगलोर में देश का पहला ट्रेड यूनियन “संगमा” बनाया गया है|
अधिकांश स्वास्थ्य सर्वेक्षण हमें यह तो बताते हैं कि स्त्री-पुरुषों में कुपोषण का प्रतिशत क्या है? एनीमिया की स्थिति क्या है? लेकिन इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद भी आज तक किसी स्वास्थ्य सर्वेक्षण में तीसरे लिंग के लोगों की कुपोषण का प्रतिशत और खून की कमी का प्रतिशत लेकर नहीं आया है| यह मेरा दावा है कि जिस तरह की उपेक्षा भरी जिंदगी ये बसर कर रहे हैं उससे तो यही लगता है कि यह समुदाय भी कुपोषण और भुखमरी की जिन्दगी जरूर बसर कर रहा होगा| न हमें इनकी मृत्यु दर पता है और न ही इनकी जन्म दर| यह एक विडम्बना ही है कि अस्पतालों में अंतर्लिंगी बच्चों का कोई रिकार्ड नहीं रहता है| सेक्स रिसाईन्मेंट सर्जरी भी भारत में सुलभ नहीं है| ना ही कोई संबंधित प्रोटोकाल है जो भी इस समस्या को बढ़ावा देता है|
राज्यसभा चैनल के लिए बनाये गए वृत्तचित्र “किन्नर लोक का सच” में इस समुदाय की अनु स्वीकारती हैं कि कभी किसी को स्वास्थ्यगत समस्या होने पर डाक्टर के पास जाते हैं तो या तो वे हमें छूते नहीं हैं या छूते हैं तो फिर गलत तरीके से छूते हैं| दोनों ही स्थितियों में सही बीमारी का पता नहीं लग पाता है, पर यही सच्चाई है| गौर करिए कि हमने देश में जनाना अस्पताल खोला है, सामान्य अस्पताल खोले हैं, शिशु रोगों से संबंधित विशिष्ट स्पताल खोले हैं|लेकिन हम आज तक इस समुदाय के लिए एक अदद विशेष स्वास्थ्य सुविधा मुहैया नहीं करा पाए हैं| हमारे देश में बाल रोग विशेषज्ञ हैं, स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं, नाक-कान-गला रोग विशेषज्ञ हैं तो फिर आज तक इस देश में हिजड़ों के मामलों को देखने के लिए एक विशेषज्ञ तक तैयार नहीं कर पाए हैं| वह विशेषज्ञ तैयार हो भी नहीं सकता है क्योंकि यह पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है| और दरअसल यह तबका समाज, सरकार और नीति नियंताओं की सोच की परिधि में नहीं आता है|
तीसरे लिंग के उत्थान के लिए काम कर रही बुनियाद फाउन्डेशन की अध्यक्ष डा. लक्ष्मी कहती हैं कि शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों तक के लिए एक अलग से श्रेणी है पर अफ़सोस कि इनके लिए कोई श्रेणी नहीं है? किन्नर भारती की अध्यक्ष सीता कहती हैं लेट्रिन उठाने वालों तक के लिए नौकरी मिल जाती है लेकिन हमारे लिए नौकरियों में कोई भी आरक्षण नहीं है| 10-15 लाख की जनसंख्या के बाद भी इस देश में हमारा समुदाय अल्पसंख्यक नहीं है जबकि पारसी समुदाय की केवल 70,000 जनसंख्या है और वो इस देश में अल्पसंख्यक हैं| हमारी शिक्षा के आंकड़े अभी तक उपलब्ध नहीं हैं| खैर आंकड़े भी तो तब आयेंगे जब हमें स्कूलों में पढने को मिले| अपने बच्चों के जनम पर हमारी दुआएं लेने वाला समुदाय अपने बच्चों को हमारे साथ नहीं पढ़ाना चाहता है|
भोपाल, मध्यप्रदेश की राजधानी है और यहाँ आप यदि पहली बार आये हैं और आप किसी से पूछें कि भोपाल किन चीजों के लिए प्रसिद्ध है|तो बड़े ही आसानी से जवाब मिलता है जर्दा, पर्दा और नामर्दा| यहाँ पर तीसरे लिंग में से भी हिजड़ों के कई घराने हैं| जिसके कारण भोपाल के साथ इनका नाम जुडा है| इतनी तादाद होने के बावजूद भी आज तक भोपाल में आज तक हम इन्हें एक अलग से जनसुविधा शौचालय उपलब्ध नहीं करवा पाए हैं| यदि कोई हिजड़ा समुदाय का व्यक्ति भीड़ भरे इलाके में है तो वह शौचालय का उपयोग करने कहाँ जाये? बसों में महिलाओं/ विकलांगों के लिए तो सीट आरक्षित रहती है लेकिन इनके लिए नहीं?
राजनीति के धरातल पर भी इनका प्रतिशत प्रतिशत नगण्य ही है| राजनीतिक दलों में तो लगभग शून्य ही है| अभी तक मध्यप्रदेश या उत्तरप्रदेश में जिन इक्का-दुक्का हिजड़ों ने सफलता हासिल की है लेकिन उन्होंने भी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में ही अपनी किस्मत आजमाई है| आपको यह जानकर होगा कि अभी तक संसद में एक भी तीसरे लिंग के व्यक्ति ने चुनकर अपनी उपस्तिथि दर्ज नहीं कराई है| किसी भी राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में इनके लिए कोई स्थान नहीं है| और तो और आजादी के लगभग 50 सालों बाद तक इन्हें मताधिकार भी प्राप्त नहीं था| निर्वाचन आयोग के पूर्व आयुक्त एम. वाय. कुरैशी ने कहा कि हमने देखा कि इन्हें मतदान का अधिकार नहीं है जबकि यह तो संविधान देता है और कोई इसे छीन नहीं सकता है, तब हमने तत्काल प्रभाव से इसके लिए आवश्यक प्रक्रियाएं कर दीं| लेकिन अफ़सोस कि 1994 में मिले इस अधिकार के बाद भी इन्हें मतदाता पहचान पत्र केवल इसलिये नहीं दिया जा सका क्योंकि वे न तो महिला की श्रेणी में ही थे और न ही पुरुष की| इस बार 2013 में इन्हें अन्य की श्रेणी में मतदान करने का अवसर मिला| इसके बावजूद भी हालत यह है कि इनके लिए निर्वाचन आयोग ने कोई ख़ास पहल नहीं की और जिसके चलते केवल मध्यप्रदेश में ही हजारों की संख्या में होने के बावजूद भी कुल 900 लोगों का ही मतदाता परिचय पत्र बन सका है|
यह भी एक विडम्बना है कि तीसरे लिंग के व्यक्तियों को आदतन अपराधी माना ही जाता है| आपराधिक अपराधी अधिनियम 1971 के तहत किन्नरों को अपराधी माना गया है| इन्हें केवल संदेह के आधार पर ही गिरफ्तार किया जा सकता है| इसी प्रकार भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में ट्रांसजेंडर समुदाय के एक भाग को नजरअंदाज किया जाता है| जिसमें अप्राकृतिक सेक्स को अपराध माना गया है| इन्ही कारणों से ये जाने-अनजाने पुलिस के हत्थे चढ़ते हैं और उसके बाद इन्हें प्रताड़ना देने का चलन चलता रहता है| यह तब है जबकि मानवाधिकार इनके साथ ही सांस लेते हैं और उसके बावजूद यह समुदाय उसमें घुटता रहता है|
न काम, न आरक्षण, न कोई स्वतंत्र पहचान और न ही कोई विशेष योजना | जब हमारे सारे अधिकारों के सामने ‘न’ लगा हो तो फिर हमारे लिए इन मानवाधिकारों के क्या मायने हैं?? बहिष्कार की एक अंतहीन सी प्रक्रिया को झेल रहे इस समुदाय की समस्याओं को हम मानवाधिकार के प्रकाश में देखें तो हमें पता चलता है कि उस पर किसी का ध्यान नहीं है| मानवाधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय घोषणा पत्र की धारा 3 कहती है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना जीवन स्वतंत्रता और सम्मान के साथ जीने का अधिकार है| इसी प्रकार आईसीसीपीआर, जिसका भी भारत देश एक हस्ताक्षरी है, की धारा 6(1) कहती है कि बेहतर व सम्मानपूर्ण जीवन बुनियादी अधिकार है| 1979 में हुए इसी समझौते की धारा 4 कहती है कि इन अधिकारों में कोई समझौता नहीं किया जा सकता है| और एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते होने और इस पर भारत देश द्वारा इसे अंगीकृत करने के कारण यह जरुरी है कि वह इन प्रावधानों के परिपालन हेतु काम करे लेकिन यह नहीं होता दिख रहा है| बल्कि तीसरे लिंग के मानवाधिकार सूली पर टंगे दिखाई देते हैं|
मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत माननीय उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारिख कहते हैं कि संविधान में जीने का अधिकार सभी को है, बल्कि यूँ कहें कि सम्मान के साथ जीने का अधिकार है| संविधान की नजर में सब बराबर हैं लेकिन इन्हें यह नहीं मिलते हैं| इनके साथ कदम कदम पर और कमोबेश हर जगह अन्याय हो रहा है और इनके मानवाधिकारों का हनन हो रहा है| पीयूसीएल की राष्ट्रीय सचिव कविता श्रीवास्तव कहती हैं कि नया भारत बना और उसमें जिस तरह से इनके मानवाधिकार ताक पर रखे गए, वह चिंताजनक है| हमारे संविधान में भी लैंगिक अल्पसंख्यकों का जिक्र ही नहीं है| जिस तरह से इनके साथ अत्याचार हो रहा है, इनके इज्जत से जीने का अधिकार खतरे में है, वह चिंतनीय है| कविता कहती हैं कि भारत में सबसे पहली रिपोर्ट पीयूसीएल की कर्नाटक इकाई ने 2001 में तैयार की| उसके बाद अलग-अलग इकाइयों ने भी इस पर काम किया है|
हालाँकि यह भी उतना ही बड़ा सच है कि यह समूह मानवाधिकार संगठनों की भी पहली प्राथमिकता कभी नहीं रहा है| यह समूह और उनके मुद्दे भी आश्चर्यजनक रूप से इन संगठनों की नजर में नहीं आये हैं| हालांकि अभी कई संगठन आगे आये हैं| इस पूरी श्रंखला में मानवाधिकार आयोगों की भी भूमिका बहुत ही निराशाजनक माहौल पैदा करती है| कई आयोगों में तीसरे लिंग के विषय में जानकारी भी उपलब्ध नहीं है| मानवाधिकार आयोगों ने इस समुदाय के सम्बन्ध में अपने वक्तव्य भी जारी नहीं किये हैं|
केवल और केवल स्त्री-पुरुष में बंटे हमारे समाज के पास थर्डजेंडर के बारे में सोचने का वक्त ही नहीं है। ये आगे आयें, समाज के साथ चलें, यह किसी को मंजूर नहीं| इसमें सरकार भी दोषी है, समाज भी दोषी है, परिवार भी दोषी है और मैं और आप व्यक्तिगत रूप से भी| इन्हें किसी भी तरह के कोई भी अधिकार नहीं मिले हैं लेकिन उसके बाद भी यह लोग हमेशा दुआएं ही बाँटते नजर आते हैं| ऐसे में क्या हमारी जिम्मेदारी नहीं कि हम इनके बेहतर जीवन हेतु अपने-अपने दायरों से बाहर निकलें और इनके अधिकारों के संरक्षण के लिए प्रयास करें| पर वह प्रयास दुआ के रूप में न हो बल्कि अधिकार के रूप में हो|
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