आन्ध्र प्रदेश में श्री काकुलम थर्मन पावर प्लांट का विरोध; उडीसा में पास्को का विरोध, गोवा में खनन घोटाला, बेल्लारी में भूमिगत संसाधनों की लूट, उत्तरप्रदेश में चिल्कदांड का संघर्ष और सड़कों-पावर प्लांट के नाम पर खेती की 1 लाख एकड़ जमीन की लूट की खिलाफत, हिमाचल प्रदेश में हुल -1 जल विधुत परियोजना और लुहरी परियोजना, रेणुका बाँध परियोजना का विरोध, पंजाब में कचरा आधारित प्रस्तावित बिजली घर का विरोध, राजस्थान में रावतभाटा में विकिरण रिसाव और बांसवाडा में सुपर क्रिस्तील पावर प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध …..भारत में विकास के नाम पर जारी संसाधनों की विनाशकारी लूट के खिलाफ चल रहे संघर्षों की यह सूची बहुत लम्बी है। सरकार भले ही नासमझ बनती हो कि कोई विनाश नहीं हो रहा है; परन्तु लोग बखूबी समझते हैं लूट की अर्थनीति को।
परतंत्रता, प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की विकास नीति, राजनीति और सत्ता; इन चार के बीच सीधे और पारिवारिक सम्बन्ध हैं। भारत में 5.37 करोड़ परिवार भूमिहीन हैं और 6.1 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके पास जमीन का इतना टुकड़ा भी नहीं है कि वे अपने लिए एक खुद का घर बना सकें। ऐसे लोग जहाँ भी रहते हैं उन्हे अतिक्रमणकारी कहा जाता है। अपने ही देश में इन लोगों को परायेपन का बार बार अहसास करवाया जाता है। 1960 के दशक में देश में विनोबा भावे की कोशिशों और भूदान आन्दोलन ने भूमि सुधार लाने वाली व्यवस्था की जरूरत को सामने रखा था। देश आज़ाद तो हो चुका था, अँगरेज़ भी चले गए परन्तु जमींदार और वर्गभेद तो वहीँ का वहीँ था। देश की 78 प्रतिशत आबादी के लिए आज़ादी का मतलब केवल अंग्रेजों के चले जाने से जुदा हुआ नहीं था। जमींदारी, बंधुआ मजदूरी, संसाधनहीनता, क़र्ज़दारी और शोषण से मुक्ति के बिना उनकी जिन्दगी में 15 अगस्त कभी नहीं आ सकता था। इसी दशक में सरकारों ने भी कहा कि देश में भूमि सुधार नीति लायी जायेगी ताकि संसाधनों ख़ास तौर पर जमीन का न्यायोचित वितरण हो क्यूंकि इसके अभाव में देश की दो तिहाई आबादी बंधुआ मजदूरी, क़र्ज़ और शोषण के चक्र के बाहर निकल ही नहीं सकती थी। वायदे किये गए, वायदे इतनी कमज़ोर थे की भारत में कई कोशिशों के बाद भी 30 सालों में केवल 3 प्रतिशत जमीन का ही वितरण हो पाया जबकि कोरिया सरीखे देशों में 2 वर्षों में 37 प्रतिशत जमीन का वितरण हो गया। अब यदि पिछले 22 वर्षों, यानी उदारवादी आर्थिक नीतियों की काल को देखें तो पता चलता है कि जमीन बांटना किसी भी सरकार की मंशा हो ही नहीं सकती। इसी जमीन और अन्य संसाधनों की लूट पर तो देश की वृद्धि दर फल फूल रही है। 20 साल पहले जिस डी एल ऍफ़ नाम की कंपनी को कोई नहीं जानता था वह कंपनी आज 3 लाख करोड़ की पूँजी की मालिक कैसे हो गयी? क्यूंकि उसने जमीनें लूटी हैं। कर्नाटक का एक समूह है – कर्थुरी समूह। इस समूह ने अफ्रीकी देशों में 3.50 लाख एकड़ जमीन हासिल की है, जिस पर वह फूलों का व्यापार करती है और स्थानीय अफ्रीकी उसके मजदूर बन कर काम करते हैं। जमीन जिन्दगी ही नहीं सत्ता का चरित्र भी बदल सकती है; नहीं; जमीन सत्ता का चरित्र बदल ही देती है। जिसके पास जमीन होगी वही स्वतंत्र होगा, उसके ही जीवन में सम्मान होगा और एक संभावना भी कि वह परिवार भूख और कुपोषण से मरेगा नहीं। आज 5.37 करोड़ लोग भूमि हीन हैं परन्तु पिछले 20 वर्षों में 81 लाख हेक्टेयर जमीन औद्योगिकीकरण और देश के विकास के नाम पर 200 घरानों को दे दी गयी। ये 200 घराने आज भारत की सत्ता और नीति बनाने वाली व्यवस्था को नियंत्रित करते हैं। बजट पेश करने से पहले हमारे वित्त मंत्री किसानों से नहीं मिलते, वे मजदूरों से भी नहीं मिलते; परन्तु औद्योगिक संगठनों के पास जाते हैं, उनकी बात सुनते हैं और पूरा किये जाने वाला वायदा करके भी आते हैं। सत्ता उनकी हो गयी क्यूंकि उन्होने सरकार से संसाधन मांगे, लोगों से छीने और हर तरीका अपना कर उन पर कब्ज़ा किया। आज जब मध्यप्रदेश के विकास की बात हो रही है तब मध्यप्रदेश सरकार ने वायदा किया है कि पूंजीपति आयें, जहाँ वे चाहेंगे उन्हे जमीन दी जायेगी और सभी सुविधाएं और स्वीकृतियां देने के लिए एकल खिड़की व्यवस्था होगी। जिस राज्य में 1 करोड़ से ज्यादा किसान परिवार हों, जो किसान आत्महत्या के मामले में पांच सबसे ऊपर वाले राज्यों में शुमार हो, जहाँ किसान इसलिए आत्महत्या कर लेता हो क्यूंकि उसे उसकी अपनी ही जमीन के खसरा खतौनी के कागज़ बिना रिश्वत दिए न मिल पाते हों और उसके खेत की नप्ती न हो पाती हो। इस काम के लिए उसे 9 अधिकारियों के सामने मिन्नतें करना पड़ती हों और हर साल 212 किलोमीटर के चक्कर सरकारी दफ्तर के लगाने पड़ते हों, उसके लिए एकल खिड़की क्यों नहीं बनती! हाल ही में 50000 पद यात्रियों ने ग्वालियर से दिल्ली की तरफ कूच किया। मध्यप्रदेश सरकार के मुखिया और सत्ताधारी दल के मुखिया ने तत्काल जमीन के हक़ और भूमि सुधार के लिए अपने घरों से निकल दिल्ली की तरफ चल पडे जन सैलाब के राजनीतिक निहितार्थ को समझा और कहा कि मध्यप्रदेश सरकार के दायरे में जो अधिकार हैं, उनके तहत लोगों और भूमिहीनों को जमीन के हक़ दे दिए जायेंगे। इसके पहले जब एकता परिषद् के नेतृत्व में यह यात्रा 2 अक्तूबर को ग्वालियर से शुरू हुई तब भारत सरकार के दो महत्वपूर्ण केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश और ज्योतिरादित्य सिंधिया यात्रा आरम्भ स्थल पर पंहुचे। जयराम रमेश एक पत्र लेकर आये थे जिसमे यह उल्लेख था कि केंद्र सरकार सत्याग्रहियों की मांगों को पूरा करेगी; परन्तु सत्याग्रही यह मांग कर रहे थे कि इस पत्र की बातों को लागू करने के लिए सरकार की बाध्यता कैसे तय होगी; क्यूंकि वर्ष 2007 में जनादेश यात्रा के बाद भी तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री के मुख के जरिये सरकार ने भूमि सुधार नीति लागू करने के वायदे किये थे। अब लोग उनसे अनुबंध चाहते थे और लिखित में अनुबंध भी। केन्द्रीय मंत्री का कहना था कि कुछ मांगों को पूरा करने के लिए संवैधानिक प्रक्रिया चलाना होगी इसलिए उन पर वायदा नहीं किया जा सकता है। अंततः केंद्र सरकार इस यात्रा को रोक न पायी। इसके बाद मध्यप्रदेश सरकार और सत्तारूढ़ दल ने मौके के मुताबिक़ काम किया। भारतीय जनता पार्टी ने कहा वह जन सत्याग्रह और लोगों की मांगों के साथ है और उन्हे पूरा करेगी। मुख्यमंत्री जी ने अमेरिका से सूचना प्रोद्योगिकी का उपयोग करते हुए लोगों को संबोधित किया और मध्यप्रदेश वापस आते ही सत्याग्रहियों के मिलने चले गए। अच्छा लगा कि मुख्यमंत्री यह मानते हैं कि जमीन पर आम लोगों, आदिवासियों और किसानों का आज भी हक़ है पर उन्हे वैचारिक और कार्यशील विरोधाभास को भी ख़त्म करना होगा। एक तरफ 50000 पैदल चल रहे सत्याग्रहियों को उन्होने प्रतिबद्धता दिखाई; पर इसके ठीक 1 महीने पहले इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बाँध के प्रभावितों को उनके हक़ की जमीन देने के मामले में उन्होने इस तरह का सकारात्मक रुख नहीं रखा और एक तरह से आन्दोलनकारियों को अपराधी की श्रेणी में रख दिया गया। मध्यप्रदेश में पिछले 5 वर्षों से औद्योगिक निवेश ले लिए सम्मलेन हो रहे हैं। यदि मध्यप्रदेश सरकार के दस्तावेजों को ही आधार बनाएं तो 4 लाख हेक्टेयर जमीन किसानों ने उद्योगों को बेंच देने की सहमति दे दी है या कहें की बेंच दी है। इस मान से यह कहना शायद ठीक ही है होगा कि जमीन पर औद्योगिक और पूंजीवादी कब्जे के लिए माहौल बनाया जा चुका है। इस बात का कौन जवाब देगा कि वन अधिकार क़ानून के तहत मध्यप्रदेश में आदिवासियों के 66 प्रतिशत दावे यानी 3.50 लाख दावे निरस्त कर दिए गए। और वन पर सामुदायिक दावों को तो मानो छीन ही लिया गया है। पुनर्वास नीति कहती है कि परिवार के हर वयस्क को एक स्वतंत्र इकाई मानते हुए उनका पुनर्वास किया जाएगा और 10 लाख रूपए मुआवजा दिया जाएगा, क्यूंकि वहां उनसे जमीन, जंगल और पानी छीन लिया जाना है। इसके दूसरी तरफ डिंडोरी जिले में एक परिवार के अलग-अलग रह रहे सदस्यों, जिनका वन भूमि पर कानूनन हक़ बनता है, को एक ही इकाई माना गया। बात को थोडा स्पष्ट करता हूँ; जब पिता और 3 पुत्रों ने वन अधिकार क़ानून के तहत नियमानुसार 5-5 एकड़ जमीन पर अधिकार पत्र पाने के लिए आवेदन किये तो उन्हे कुल मिला कर 20 एकड़ जमीन देने के बजाये 5 एकड़ के अधिकार पत्र पर ही 4 हिस्से करके दे दिए। जबकि ये चारों परिवार 15 सालों से ज्यादा समय से अलग-अलग खेत जोत रहे हैं। सतना के मझगवां ब्लाक में 85 एकड़ वन भूमि पर गाँव के लोगों ने दावा किया तो सबूत मिटाने के लिए वन प्रशासन ने उनकी खड़ी फसल ही तहस नहस कर दी। शिवपुरी के पोहरी विकास खंड के नोंहेटा खुर्द गाँव में वर्ष 2002 में 40 परिवारों को जमीन के पट्टे दिए गए, पर अब तक उन्हे जमीन पर कब्ज़ा नहीं मिला। यह व्यवस्था की पूरी असफलता ही है कि मालिक होने बाद भी लोगों को जमीन पर कब्ज़ा नहीं दिला पायी।
जब उद्योगों के लिए जमीन है तो अब तक भूमिहीनों और बड़ी विकास योजनाओं के प्रभावित होने वाले परिवारों को जमीन देने लिए क्यों नहीं मिलती। एक बात यह भी नहीं भूली जाना चाहिए कि राजनीतिक दलों की रैलियों या अभियानों में 50000 लोग बिना निवेश इकठ्ठा होते नहीं है, इसलिए राजनीतिक दलों के लिए यह विचार की भी घडी है कि लोग अब आन्दोलनों में ज्यादा विश्वास कर रहे हैं। देश के किसी भी राज्य पार्का सन्दर्भ ले लीजिये; हर कोने में छोटा या बड़ा जन आन्दोलन रूप ले रहा है। ये आन्दोलन जमीन, जंगल, पानी, पर्यावरण और सम्मान के हकों के लिए चल रहे हैं। जिस तरह राजनीतिक दल संसाधनों पर लोगों को हक़ दिलवाने के मामले में अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं; उस मामले में जन आन्दोलन न केवल सक्रीय हुए हैं, बल्कि उन्होने लोकतंत्र को कमज़ोर किये जाने की राजनीतिक कोशिशों पर भी सवाल उठाये हैं। इसीलिए आप यह देखेंगे कि सरकार अपनी उन विकास नीतियों से पीछे हटने के लिए बाध्य होती है, जिनका मकसद संसाधनों की लूट होता है। यह भी तय है कि जमीन, जंगल और पानी की लूट का घोटाला नयी वैकल्पिक राजनीति को जन्म देगा।
About the author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist and researcher who is associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: +91 755 4252789.