कुपोषण की वजह से होने वाली मौतें राज्य व्यवस्था के माथे पर कलंक का टीका हैं। लेकिन शासन-प्रशासन की बढ़ती हठधर्मिता के चलते इन मौतों पर विराम नहीं लग पा रहा है। कहावत है कि सोते को जगाया जा सकता है लेकिन सोने का ढोंग करे व्यक्ति को जगाया नहीं जा सकता। प्रशासन द्वारा जानबूझकर की जा रही अनदेखी भारतीय संविधान की भी अवहेलना है।
मध्यप्रदेश के रीवा जिले के सिमरिया ब्लाक के ककरेड़ी और मैनहा गांव में पिछले साल छः बच्चों की असमय मौत हो गई। भोजन के अधिकार दल ने वहां जाकर जांच-पड़ताल की तो पाया कि बच्चों की मौत गंभीर कुपोषण के कारण हुई हैं। महिला एवं बाल विकास विभाग ने रटा-रटाया जुमला गढ़ा कि मौतें बीमारियों से हुई हैं ना कि कुपोषण से। जबकि स्वास्थ्य विभाग ने कहा कि गांव में बीमारियां थीं ही नहीं। सभी बच्चों का टीकाकरण हुआ था आदि-आदि। यह पहाड़ी क्षेत्र है] पहुंच मार्ग भी नहीं है और स्वास्थ्य विभाग के अनुसार दस्यु प्रभावित क्षेत्र है] इसलिये यहां पर सेवाएं नहीं मिल पाती हैं। गांव के लोगों से पता चला कि आंगनवाड़ी आठ साल से नहीं खुली] टीकाकरण भी से नहीं हुआ तो फिर मरता क्या ना करता तो गांव वालों ने अमूर्त सत्ता के साथ अपनी परेशानी बांटना शुरु की । किसी ने ईश्वर ने कथा कबूली] किसी ने बलि पर जतन किया कि किसी तरह से बच्चे तो बचें।
हालाँकि मध्यप्रदेश में बच्चों की मौत कोई नई बात नहीं है। रीवा में भी मर गये होंगें। सरकार ने हमेशा की तरह अपनी पूरी ऊर्जा इस बात को नकारने में ही लगाई। मीडिया में खबर छपी तो राजधानी से थोड़ी हलचल मची और फिर शुरु हुआ लीपापोती का सिलसिला। बहस इस बात पर चलती रही कि बच्चे कुपोषण से मरे या नही !! ना कि इस बात पर बचे हुये किन्तु गंभीर कुपोषित बच्चों को कैसे बचाएं। अंततः राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने संज्ञान लिया और सरकार से रिपोर्ट मांगी। सरकार ने अपने हिसाब से रिपोर्ट बनाई। शिशु रोग विशेषज्ञ ने प्रभावित गांवों में पँहुचकर अपनी रिपोर्ट बनाई, जिसमें कहा गया कि गांव में स्वास्थ्य सेवायें बेहतर हैं] कहीं भी किसी भी स्तर पर कोई दिक्कत नहीं है। रिपोर्ट एक भी बच्चे कुपोषित नहीं पाया गया। मानव अधिकार आयोग ने पुनः सख्ती दिखाई और नवीन रिपोर्ट बनाने को कहा तो पुनः एक नया संयुक्त जांच दल साल भर बाद उन्हीं गांवों में गया।
जांच दल के सामने स्थिति और भी खराब थी। गांव में अधिकांश बच्चे कुपोषित पाए गए। जांच दल पांच बच्चों से मिला और पाया कि उनमें से 3 बच्चे गंभीर रुप से कुपोषित थे और आंगनवाड़ी में दर्ज भी नहीं थे। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के पास कोई रिकार्ड नहीं है। सरपंच ने बताया कि इतनी उठापटक के बाद भी गांव में कोई टीकाकरण नहीं हुआ है। उन्हें पोषणाहार भी नहीं मिलता है] एएनएम 40 किलोमीटर दूर सिमरिया में रहती है और वहीं से सेवाओं का संचालन करती है। मैनहा गांव में आज तक आंगनवाड़ी की विस्तारित सेवा शुरु नहीं की गई है। लोगों को जीविकोपार्जन के लिये काम नहीं मिल रहा है। वैसे तो सरकार ने इस बार भी जांच की खानापूरी की तैयारी की थी] पर ऐसा संभव नहीं हो सका। संभागीय आयुक्त]स्वास्थ्य ने दोनों गांवों के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को निलंबित कर विकासखंड स्वास्थ्य अधिकारी की दो वेतनवृद्धि रोक दी हैं। तीन बच्चों को तत्काल प्रभाव से पोषण पुर्नवास केन्द्र भिजवा दिया गया है। सरकारी भाषा में इसे बड़ा ही क्रांतिकारी कदम माना जाता है।
एक गंभीर और चिंताजनक बात यह है कि सरकार कुपोषण के मामले में एक तरह की हठधर्मिता अपना चुकी है। रीवा के इस गांव का मामला हो या फिर श्योपुर में कुपोषण से हर साल मरने वाले बच्चों के मामले। जहां से बच्चों के मरने के मामले सामने आते हैं वहां पर सरकार कुछेक थेगड़े लगाने का जतन कर देती है। लेकिन मूल रुप से सरकार बच्चों को बचाने के लिए गंभीर दिखाई ही नहीं देती है। वह चुनौती दे रही है कि सरकार यूं ही बच्चों को मरते देखेगी] जिसको जो करना हो कर लो। सरकार की यह हठधर्मिता हमें पूरे प्रदेश में देखने को मिलती है। प्रदेश में पिछले एक दशक से प्रतिवर्ष लगभग 1]25]000 शिशु मरते हैं। इसे हमें ऐसे भी देखना होगा कि यह केवल सरकार का मामला नहीं है बल्कि विपक्ष भी इस पर नहीं चेता हुए नजर आता है। नेता प्रतिपक्ष के क्षेत्र में कुपोषण से बच्चे मारे जा रहे हैं लेकिन उन्हें भी इससे कोई खास सरोकार नहीं दिखता है।
राज्य जिस तरह से अपनी जिम्मदारियों से कन्नी काटता है यह इसका अत्यंत क्रूर उदाहरण है। जब तंत्र अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने लगता है तो वह कई जगह तो प्रत्यक्ष रुप में (बच्चों की मौतों के रुप में) सामने आता है। यहां पर राज्य की भूमिका संदेह में आती है। यहीं से प्रशासन अपने मतलब की कहानियां गढ़ना शुरु करता है। जैसे कि स्वास्थ्य विभाग का रटा रटाया जुमला है कि आदिवासी इतने बच्चे पैदा करेंगे तो वे तो मरेंगे ही !!! बहुत आसानी से इन आदिवासियों को अंधविश्वास की गिरफ्त में जकड़ा बताने वाला प्रशासन भला यह तो बताये कि आखिर आजादी के 60 वर्षों र्में इस प्रशासन ने उन्हें कब विश्वास दिया कि उनके बच्चों या उन्हें वह बचा पायेगा ?
जब भी बच्चों की मौत होती है या फिर कोई दूसरी समस्या आती है तो फिर सरकार के संबंधित विभाग आपस में छीछालेदारी कर अपनी जवाबदेहिता से बचने का प्रयास करते हैं] लेकिन इस पूरी कवायद में लोगों को मजबूरन देवी देवताओं की शरण लेनी पड़ती है और अपने बच्चों को अपने सामने मरते देखना पड़ता है।
ऐसा नहीं कि यह कहानी केवल रीवा की है बल्कि यह कहानी तो पूरे मध्यप्रदेश की है। खंड़वा में हर साल बच्चे मरते हैं]श्योपुर और शिवपुरी तो इस त्रासदी के गढ़ माने जाते हैं। पन्ना] छतरपुर] सागर] बीना सभी जगह कमोवेश यही हालात हैं। सरकार अब शायद यह मान बैठी है कि बच्चे मरें तो मरें, हमें इससे क्या ? प्रदेश में निवेशक खूब आने चाहिए। बच्चे ना कभी सरकार की प्राथमिकता में थे और ना ही रहेंगें। सरकार की हठधर्मिता तो देखिये कि सतना में 2009 में हुई बच्चों की मौतों के बाद राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष शांता सिन्हा ने स्वयं सतना पहुंचकर सरकार को दिशानिर्देश दिए थे। तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी वहां अभी तक बच्चों का मरना बदस्तूर जारी है और सरकार ने उनमें से आधे दिशानिर्देशेां की दिशा में सोचा भी नहीं है। अपनी हठधर्मिता के चलते सरकार इस तरह की संवैधानिक संस्थाओं को दरकिनार करने में भी नहीं चूकती हैं और तो और विपक्ष भी बच्चों की मौतों मामलों को रस्मअदायगी की तरह से ही लेता रहता है।
अभी हाल ही में खबर छपी कि इंदौर में आयोजित होने वाली ग्लोबल इंवेस्टर्स मीट के लिये स्वयं प्रमुख सचिव ने समीक्षा की और कहा कि इस मामले में सरकार गंभीर है किसी भी स्तर पर किसी भी तरह की लेतलाली और गड़बड़ी बर्दाश्त नहीं की जायेगी। सवाल यहां यह है कि इसी सरकार के मुख्य सचिव ने कभी कुपोषण को आपदा की तरह स्वीकार करते हुये इस तरह के दिशानिर्देश क्यों नहीं दिये? प्रदेश में आज भी नौ लाख बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण का शिकार हैं और अपनी जान बचाने के लिये रोज-रोज संघर्ष कर रहे हैं। पर लगता है कि सरकार ने अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता को तजते हुए उन्हें मरने के लिये छोड़ दिया है। भूखी जनता के पास तिलमिलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। विकल्प तो एक और लगता है कि भूखे और कुपोषण से बिलखते बच्चों को ग्लोबल इंवेस्टर्स मीट के दौरान इंदौर की सड़कों पर बिठा दिया जाए। लगातार मरते बच्चों और सरकार द्वारा उनकी अनसुनी करती आवाजों को समझने के लिए प्रसिद्ध कवि चंद्रकांत देवताले की निम्न पंक्तियां मददगार होंगी।
ईश्वर होता तो इतनी देर में उसकी देह कोढ़ से गलने लगती/ सत्य होता तो वह अपनी न्यायाधीश की कुर्सी से उतर / जलती सलाखें अपनी आंखें में खुपस लेता /