नियमों के प्रभाव – 2 फरवरी 2006 को जब राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून लागू किया गया था, तब यह अहसास तो था कि इस क़ानून को लागू करना आसान न होगा. कारण था एक बहुत बुनियादी किन्तु जवाबदेय व्यवस्था की गैर-मौजूदगी. सोच बहुत महत्वाकांक्षी थी. कुछ लोग इस क्रांतिकारी भी मानते थे, क्योंकि इस दौर में जबकि राज्य नागरिकों के प्रति अपने मूल कर्तव्यों से विमुख हो रहा था, तब सरकार ग्रामीणों को 100 दिन के रोज़गार की कानूनी गारंटी देने का क़ानून बना रही थी. जन संस्थाओं और लोक अधिकार संगठनों ने इसमें बहुत रचनात्मक और सक्रीय भूमिका निभाई थी. अगर आप स्वतंत्र भारत में बने तमाम कानूनों की भाषा के नज़रिए से पढ़ें तो हमारा दावा है कि इस क़ानून और इसकी मार्ग निर्देशिका की भाषा सबसे सरल और स्पष्ट मानी जा सकेगी. यह एक मांग आधारित कार्यक्रम है, यानी लोग काम मांगेंगे तो उन्हे काम का अधिकार मिलेगा; परन्तु शुरुआत में काम मांगने, पावती देने जैसे नियमों पर ज्यादा ठोस काम नही हुआ क्योंकि सरकार मान रही थी यदि इस प्रावधान का पालन किया तो शायद एक भी ग्रामीण काम का हक़ मांगने न आएगा क्योंकि भारत की व्यव्स्था से यदि सबसे ज्यादा कोई नाउम्मीद हुआ है, तो इस देश के गाँव के लोग! वर्ष 2009 तक अनुभवों पर नज़र रखी गयी. सबसे सामान्य आंकलन यही निकल कर आया कि इस नए रोज़गार क़ानून में क्रियान्वयन के सन्दर्भ में व्यवस्था में नीति बनाने वाले तंत्र से लेकर अफसरान और जनप्रतिनिधि तक कोई जवाबदेय नही रहा है. तब 2009-10 से इस क़ानून को नियम के नज़रिए से लागू करने की कोशिशें शुरू हुई. यही वह समय भी था जब नीति बनाने वालों और देश की अर्थव्यवस्था की दिशा तय करने वाले यह तर्क देने लगे थे कि हम 30-40 हज़ार करोड़ रूपए नाली में फेंक रहे हैं. अब चुनौती थी मनरेगा को एक व्यवस्था के तहत लाना.
आज की स्थिति में जब नियमों को लागू करने की बात हो रही है तो पता चल रह है कि हमारे यहाँ सरकार में वित्तीय आडिट की व्यवस्था नही है. केंद्र सरकार का नियम है कि जिलों को नई किश्त तभी जारी की जायेगी जब वे अपने पास उपलब्ध पूर्व की किश्तों का 60 फ़ीसदी हिस्सा खर्च कर लेंगे और इतनी ही कामों की जानकारी सूचना प्रबंधन प्रणाली (एम्आईएस) में दर्ज कर देंगे. भारत सरकार की वेबसाईट पर मंडला जिले की जानकारियों को अपलोड करने के लिये इंटरनेट की 100 मेगा बाईट प्रति सेकेण्ड की गति चाहिए होती है, जो मंडला को न मिल पायी और वह एम्आईएस में जानकारी दर्ज करने में पिछड़ता गया.
कामों का पूरा होना – मनरेगा के तहत शुरू हुए काम क्या अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सके? हम यह देख चुके हैं कि एक वित्तीय वर्ष में शुरू किया गए काम दूसरे या तीसरे वित्तीय वर्ष में जाकर पूरे हो रहे हैं, जिनसे ग्रामसभा समुदाय के स्तर पर निगरानी नहीं हो पा रही है. भारत सरकार ने निर्देशित किया है कि पूर्व ने शुरू किये गए कामों को पहले पूरा किया जाए और उनके पूर्णता प्रमाणपत्र जारी किये जाएँ. किसी भी काम के पूर्ण प्रमाणपत्र तभी जारी किये जा सकते हैं जब वे भौतिक रूप से पूरे हो जाएँ और मजदूरी का पूरा भुगतान हो जाए. लालपुर में इस साल 5 काम भौतिक रूप से पूरे हो चुके हैं, पर उनमे मजदूरी का भुगतान शेष हैं, जिससे उन्हे पूर्णता प्रमाणपत्र जारी न किया जा सकेगा. इसी तरह चूंकि जिले में लगभग आठ लाख मानव दिवसों की मजदूरी का भुगतान शेष है, इसलिए भारत सरकार का यह नियम व्यवस्था को पटरी पर आने से रोकने वाला है. मनरेगा एम्आईएस के मुताबिक मंडला में वर्ष 2008-09 में 67.78 प्रतिशत और 2011-12 में 67 प्रतिशत काम पूर्ण हुए थे. ताज़ा साल में यानी 13 जनवरी 2013 तक केवल 35.8 प्रतिशत काम की पूर्ण हुए हैं. बीजाडांडी में इस साल केवल 14.28 प्रतिशत और निवास में 13.22 प्रतिशत काम ही पूर्ण हुए हैं. मवाई विकासखंड में एक भी काम पूरा नही हुआ. मध्यप्रदेश की स्थिति मंडला की स्थिति अलग नही है. वर्ष 2008-09 में मध्यप्रदेश में 75 फ़ीसदी काम पूरे हो गए थे, वर्ष 2011-12 में 48 प्रतिशत काम पूरे हुए और इस साल स्थिति और नीचे आ गयी. इस साल 25 प्रतिशत काम ही पूरे हुए. यदि भारत सरकार कामों के पूरा होने की शर्त पर कायम रहती है तो मध्यप्रदेश का आर्थिक संकट बरकरार रहने वाला लगता है.
वित्तीय आडिट की व्यवस्था – केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा के तहत जारी की गयी राशि का पूरा उपयोग किया गया या नहीं, यह स्वतंत्र वित्तीय आडिट से स्पष्ट होता है. भारत सरकार इस पक्ष पर अब सख्त है कि हर पंचायत का नियमित आडिट हो, परन्तु इस व्यवस्था को एक सही आकार लेना अभी शेष है. लालपुर और लावर मुडिया पंचायतों के सामने संकट यह है कि वे खुद तो अपने खर्चे का वित्तीय आडिट नहीं करवा सकती हैं. आडिट एजेंसियों के बारे में राज्य स्तर पर निर्णय लिया जाता है. वर्ष 2011-12 के आडिट के लिये राज्य सरकार ने आडिटर का चयन ही अक्तूबर 2012 मे किया, जबकि नियम अनुसार 30 सितम्बर तक आडिट की रिपोर्ट अनिवार्य रूप से भारत सरकार को प्रेषित कर दी जाना चाहिए थी. परिणाम स्वरुप केंद्र सरकार से जरूरी राशि मिलने में बाधा आने लगी. आज मंडला जिले में सरकार को 9 लाख मानव दिवसों की लगभग 10 करोड़ रूपए की मजदूरी और लगभग 10 करोड़ रूपए के सामग्री के बिलों का भुगतान करना है, परन्तु उन्हे यह राशि नहीं मिल रही है. बडवानी जिले में आडिट का काम 17 सितम्बर को शुरू किया गया. वहां 106 पंचायतें ऐसी थी, जिनका वर्ष 2006 से किसी न किसी वर्ष आडिट ही लंबित था. वहां वन विभाग ने मनरेगा से बजट लिया पर चार साल तक आडिट नही करवाया. अब चूंकि मध्यप्रदेश में इस योजना के तहत आडिट की परंपरा ही विकसित नही हो पायी इसलिए वर्ष 2006-07 से अब तक 5000 पंचायतों के अलग-अलग वर्षों के आडिट नही हो पाए. इसी दौर में पंचायतों के अलावा अन्य क्रियान्वयन एजेंसियों, जैसे वन विभाग, ग्रामीण यांत्रिकी विभाग आदि ने मनरेगा का बजट तो ले लिया पर 4-4 सालों से आडिट नहीं करवाए. ये एजेंसियां भी सामाजिक अंकेक्षण से दायरे से लगभग बाहर ही हैं. इससे लगभग 500 करोड़ रूपए की राशि का अधिकृत हिसाब ही नहीं मिल पा रहा है. ताज़ा स्थितियों में यह विश्लेषण करने की जरूरत भी है कि हम नियमों के मुताबिक़ केवल ढांचे बनाने पर ध्यान केन्द्रित न करें. हम योजना के बेहतर क्रियान्वयन की कोशिश के दौरान आ रही दिक्कतों का सही विश्लेषण करें. उन्हें केवल शासकीय कार्यालय तक सीमित रखेंगे तो ग्राम सभा के सदस्यों को कभी पता नही चल पायेगा कि समस्या के कारण क्या हैं? और सरकार–समाज के बीच अविश्वास की खाई बढती जायेगी. नियम बनाने और उन्हे लागू करने का काम भी लोगों की सहभागिता से ही होना चाहिए.
*This is the third article in an article series confronting with the issues plaguing the implementation of MNREGA in India.
About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: 00 91 9977704847