भारत के कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान के मलाला दोनों को बच्चों के अधिकार और शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिये संयुक्त रुप से नोबल पुरस्कार से नवाजा गया है। भारत, पाकिस्तान जैसे पिछड़े देशों में बच्चों की शिक्षा एक बड़ी समस्या रही है।
पिछले सप्ताह राजस्थान के बगड़ में शिक्षा पर काम करने वाली संस्था पीरामल फाउंडेशन की ओर से चलाए जा रहे लीडरशिप कार्यक्रम के तहत शिक्षाविदों व स्कूली बच्चों से रुबरु होते हुए पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा, ‘शिक्षा बच्चों को महान बनाती है। ऐसा तभी संभव है जब शिक्षा गुणवत्तापूर्ण और संस्कारित हो। ऐसी शिक्षा उन्हें केवल माता, पिता और उनके प्राइमरी टीचर ही दे सकते हैं’। वास्तव में प्राथमिक शिक्षा ऐसा आधार है जिसपर देश तथा इसके प्रत्येक नागरिक का विकास निर्भर करता है। शिक्षा मानव के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है जिससे व्यक्ति सभ्य नागरिक बनता है व सभ्य नागरिक सभ्य समाज का निर्माण करता है।
स्वतंत्रता के बाद से ही भारत में प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में तीव्र विकास लाने के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। खासकर 21वीं सदी के प्रारंभ से इन प्रयासों की गति तीव्र हुई, और नवंबर 2000 से केंद्र सरकार द्वारा ‘सर्व शिक्षा अभियान’ चलाया गया, जिसमें 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया। वर्ष 2002 में सर्व शिक्षा अभियान से एक कदम आगे बढ़ते हुए 2009 में शिक्षा का अधिकर अधिनियम लाया गया और 2010 में इसे पूरे देश में लागू किया गया। यह कानून सुनिश्चित करता है कि हरेक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा का अधिकार प्राप्त हो। विश्व के कुछ ही देशों में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून का प्रावधान मौजूद है। इसके वाबजूद हाल के वर्षों में भारत में प्राथमिक शिक्षा में छात्रों का नामांकन बढ़ा, लेकिन प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया गया है।
यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार, “भारत में एक तिहाई बच्चे न तो चौथी कक्षा तक पहुंच पाते हैं, और न ही बुनियादी शिक्षा हासिल कर पाते हैं।” वर्तमान समय में भारत में दुनिया के एक तिहाई निरक्षर बुज़ुर्ग हैं, एंव दुनिया भर के 37 फीसदी ऐसे वयस्क हैं जो कभी स्कूल गए ही नहीं। भारत में इन निरक्षर वयस्कों की संख्या करीब 28 करोड़ 70 लाख है। आगे इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में शिक्षा पर खर्च में 1999-2011 की अवधि के दौरान गिरावट आई है। गिरावट बजट-निर्धारित व्यय के प्रतिशत और सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीएनपी) के प्रतिशत व्यय दोनों दृष्टियों से देखी गई। 1999 में शिक्षा पर खर्च कुल बजट-निर्धारित व्यय का 13% और जीएनपी का 4.4% था, जबकि वर्तमान समय में भारत में शिक्षा पर कुल सरकारी व्यय का 10.5% खर्च होता है, जो सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीएनपी) का 3.3% है। धन की यह कमी अब 26 अरब डॉलर की सीमा तक पहुंच चुकी है। जिसके कारण भारत में बेहद गरीब घरों की लड़कियों को शिक्षित करने का लक्ष्य वर्ष 2080 तक पूरा होगा। साल 2015 तक दुनिया में ‘सबके लिए शिक्षा’ का लक्ष्य संयुक्त राष्ट्र संस्था (यूनेस्को) के सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से है। लेकिन यह लक्ष्य पूरा होता नज़र नहीं आ रहा क्योंकि अभी भी लाखों बच्चे और वयस्क स्कूल से दूर हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली एक गैर-सरकारी संस्था ‘प्रथम’ की एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसइआर) के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश में कक्षा पांच के 62 प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा दो का ज्ञान नहीं रखते और सामान्य जोड़-घटाव भी नहीं कर पाते। 2010 में जहां कक्षा 5वीं के 50.7 फीसदी बच्चे कक्षा दूसरी स्तर के पाठ पढ़ सकते थे वहीं यह प्रतिशत 2012 में घटकर 41.7 फीसदी पर गिर चुका है।
शिक्षा का अधिकर अधिनियम (आरटीई) सिफारिश करती है कि स्कूलों को चाइल्ड फ्रैंडली और प्राथमिक शिक्षा को आनंददायी बनाया जाए साथ ही विकलांग बच्चों का विशेष ध्यान रखा जाए। इसके लिए आरटीई ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत 43,668 स्कूलों के निर्माण, 7,00,460 अतिरिक्त कक्षाओं, 5,46,513 शौचालयों और 34,671 पीने के पानी के इंतेजाम की भी सिफारिश की थी। लेकिन जब स्कूलों पर नजर डालते हैं तब पता चलता है कि कक्षाओं में बच्चों की सुविधाजनक बैठने की व्यवस्था तक नहीं है।
डिस्टिक इंफर्मेंशन आफ स्कूल एजूकेशन (डीईएस) की 2012-13 की रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ 8.28 फीसदी स्कूल ही आरटीई के बताए दस बिंदुओं जिसमें पीने का पानी, शौचालय, पुस्तकालय, कक्षा, प्रशिक्षित टीचर, स्कूल की चारदीवारी, प्रयोगशालाएँ, भाषा शिक्षक, बिजली, आदि शामिल है पर खरे उतरते हैं।
शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) में इस बात पर जोर दिया गया है कि स्कूलों में पठन-पाठन बिना प्रशिक्षित शिक्षकों के संभव नहीं है, लेकिन अभी भी बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, झारखंड़ और दिल्ली पर नजर डालें तो वहां 2 से 3 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। ऐसे में किस प्रकार का पठन-पाठन होता होगा इसका अनुमान लगाया जाना कठिन नहीं है। कहां तो शिक्षक-बच्चे के अनुपात 30:1 का माना गया है लेकिन हकीकत में देखें तो विभिन्न देशव्यापी सर्वेक्षण बताते है कि स्कूलों में 50:1 का अनुपात बनाए रखना भी मुश्किल हो रहा है। कुछ स्कूलों में तो यह अनुपात 80/90:1 का है। चौंकाने वाली बात है कि बिहार सरकार ने प्राइमरी स्तर पर जिन 1.50 लाख शिक्षकों की संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) के आधार पर नियुक्ति कुछ साल पहले की गई थी उनमें से जब पचास हजार की जांच की गई तो उनमें से बीस हजार की डिग्रियां फर्जी थे। इसके बाद भी केवल कुछ मुखियायों को हटाया गया लेकिन किसी भी स्तर के एक भी अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। ऐसे में एक शिक्षक से किस प्रकार की उम्मींद बंधती है? इस अधिनियम के तहत निजी विद्यालयों में 25 प्रतिशत स्थान निर्धन और वंचित बच्चों के लिए आरक्षित होने का प्रावधान है, लेकिन अधिकतर निजी विद्यालय ऐसे बच्चों को अलग बैठा देते है या शाम के समय में इन बच्चो को बुलाते है जिससे यहाँ ये बच्चे हीनता ग्रस्त हो रहे हैं। राज्यस्थान के एक राजकीय प्राथमिक विधालय के प्रधानाध्यापक कहते हैं, “शहरी क्षेत्रों में तो इन बच्चों के लिए इतनी भी व्यवस्था है इसके विपरीत यहां के गांव में चल रहे निजी विद्यालय 25 प्रतिशत के नाम पर सरकार से भी पैसा ले रहे हैं और अविभावक से भी। जो अविभावक जागरुक हैं, उन्हें कुछ रियायतें दे दी जाती है। जब अविभावक अपनें बच्चों को दूसरे स्कूल में बच्चें को ले जाना चाहते है तो निजी विद्यालयों वाले इन्हें टी सी देनें से मना कर देते हैं”। इस कानून में ऐसे किसी ठोस तंत्र के बारे में कोई चर्चा नहीं की गई है।
विश्व बैंक नें दक्षिण एशियाई छात्रों पर ज्ञान शीर्षक से जारी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि भारत सहित दक्षिण एशियाई देश शिक्षा पर खर्च तो कर रहे हैं पर शिक्षण की गुणवत्ता खराब होने की वजह से इन देशों का आर्थिक विकास ही नहीं अवरुद्ध हो रहा है बल्कि इससे युवाओं में बेरोजगारी-जनित गरीबी भी बढ़ रही है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों के कक्षा पांच के विद्यार्थी सामान्य माप-तौल, दो-अंकों का जोड़-घटाना, अपनी बात को वाक्य में लिख कर समझाना या शुद्ध वाक्य लिखना तक नहीं जानते। न ही वे सौ तक के अंकों या पूरी ककहरा (संपूर्ण वर्णमाला) का ज्ञान रखते हैं।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध संसदीय समिति की रिपोर्ट भी यही कहानी बताती है. समिति के अनुसार, मंत्रालय के स्कूली शिक्षा विभाग ने स्कूलों में आधारभूत संरचना मुहैया कराने और अध्यापक-छात्रों का सही अनुपात कायम करने के लिए बजट में कुल साढ़े पचीस हजार करोड़ रुपए निर्धारित किए गए थे। शिक्षा अधिकार को लेकर केंद्र और राज्य को 55:45 के अनुपात में शिक्षा का अधिकार की वित्तीय जिम्मेदारी लेनी है, लेकिन अभी तक बारह राज्यों ने अपना हिस्सा नहीं दिया है।
रिपोर्ट देखने के बाद यहां प्रश्न उठता है कि क्या इसी किस्म के प्रयासों से हम चीन जैसे राष्ट्रों से मुकाबला कर सकेंगे। शिक्षा हमारी प्राथमिकता हो इसके लिए केंद्र और राज्य के अलावा शिक्षकों एवं समाज में रह रहे लोगों को अपनी-अपनी जबावदेही लेने की आवश्यकता है। तभी 2015 के सबके लिए शिक्षा के लक्ष्य और शिक्षा का अधिकार के सपने को साकार किया जा सकता हैं।