भारत में महिलाओं का घटता लिंग अनुपात एक विकराल समस्या के तौर पर उभर के सामने आ रहा है। ताजा आंकड़ों (2011 जनगणना) के अनुसार देश में छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिंगानुपात में सबसे ज्यादा गिरावट देखने में आयी है जो कि सरकार और समाज दोनों के लिए ही शर्मनाक और चिंता की बात है।
1961 से लेकर 2011 तक की जनगणना पर नजर डालें तो यह बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है कि देश में बच्चों के लिंगानुपात (0 से 6 वर्ष) में 1961 से लगातार गिरावट जारी है। पिछली जनगणना (वर्ष 2001) में छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या 927 थी तो वहीँ 2011 की जनगणना के अनुसार बच्चों का लिंगानुपात गिर कर 914 हो गया है. ध्यान देने वाली बात है कि यह अब तक की सारी जनगणनाओं में बच्चों के लिंगानुपात का सबसे निम्नतम स्तर है, जो कि आजादी के बाद सबसे कम हैं।
अगर हम मध्यप्रदेश की बात करें तो प्रदेश में भी बच्चों का लिंगानुपात साल दर साल घटता ही जा रहा है। प्रदेश के जनगणना कार्य निदेशालय द्वारा जनसंख्या 2011 के जारी आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में 2001 से 2011 के दौरान शिशु लिंगानुपात में 14 अंकों की गिरावट आई है। यानी शून्य से छह साल तक के 1000 लड़कों के मुकाबले सिर्फ 918 लड़कियां रह गई हैं ( (हालांकि जनगणना 2011 के प्रारंभिक रिर्पोट में यह अनुपात 912 दर्शाया गया था जो कि राष्ट्रीय औसत से भी कम था)। यह 1981 से लेकर अब तक का सबसे निम्नतर लिंगानुपात है, 2001 की जनगणना में यह अनुपात 932 का था।
म.प्र. के ग्वालियर और चंबल डिविजन में बाल लिगांनुपात की स्थिति सबसे खराब है, यहाँ के 9 जिलों में से 7 जिलों में बाल लिगांनुपात 900 से कम है। म.प्र का यह इलाका कन्या भ्रुण हत्या और कन्या शिशु हत्या का केन्द्र भी रहा है।
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो 2012 के अनुसार म.प्र. भ्रूण हत्या (30 प्रतिशत) और शिशु हत्या (20 प्रतिशत) के मामले में देश में पहले स्थान पर है। मध्यप्रदेश देश का ऐसा राज्य है जहां सर्वाधिक कन्या भ्रूण हत्या के मामले दर्ज होते हैं। प्रदेश में बेटियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से लोकसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक मध्यप्रदेश कन्या भ्रूण हत्या में शीर्ष पर है।
यह स्थिति तब है जबकि मध्यप्रदेश सरकार द्वारा महिलाओं और बालिकाओं के कल्याण को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल का दावा करती है और इसके लिए बेटी बचाओं अभियान, लाड़ली लक्ष्मी योजना, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, इत्यादी योजनाओं के सफलतापूर्वक चलाने का हवाला दिया जाता है।
जनगणना 2011 के बच्चों के लिंगानुपात के आकंड़े बताते हैं कि घटते लिंगानुपात को कम करने के लिए बीते सालों से जो नीतियों अपनाई जा रही उसका असर होता नही दिख रहा है। कन्या भ्रुण हत्या को रोकने के लिए वैसे तो पी.सी.पी.एन.डी.टी. एक्ट है, लेकिन इसका कड़ाई से पालन नही किया जा रहा है। सरकार की लाख दावों के बावजूद समाज में कन्या भ्रुण हत्या की घटनाएं कम होने के बदले बढ़ ही रही हैं।
दूसरी तरफ इस बात को भी रेखांकित किये जाने की जरूरत है कि साल दर साल इस गिरते लिंगानुपात की समस्या हमारे समाज में मौजुद पितृसत्तात्मक सोच की देन है। हमारे समाज में आज भी ऐसी सामाजिक परंपरा और मान्यताएं मौजुद हैं जो महिलाओं के खिलाफ हैं और घटता लिंगानुपात इसी का प्रतिबिम्ब है।
कहने को तो हम 21 सदी में कदम रख चुके हैं, भारत मंगल पर जीवन की खोज के लिए अभियान चला रहा है लेकिन दुर्भाग्यवश हमारा समाज आज भी रूढि़वादी सोच की कैद में है। लोग आज भी संकीर्ण मानसिकता और समाज में कायम अंधविश्वासों, दकियानुसी रीति-रिवाजों और पुराने सामाजिक व्यवस्था को मान कर बेटा और बेटी में भेद कर रहे हैं। आज भी कन्या के जन्म पर पूरे परिवार में मायूसी और शोक छा जाती और समाज लड़की की तुलना में लड़के को ही ज्यादा महत्व देता है। चूंकि हमारे समाज में ज्यादातर मां-बाप बेटे को अपने बुढ़ापे की लाठी मानते है और वंश परंपरा को आगे बढ़ाने में लड़के की ही भूमिका सर्वमान्य है इसी सोच के चलते हर साल लाखों बच्चियाँ जन्म लेने से पहले ही मार दी जाती हैं और यह सिलसिला थमने के बजाये बढ़ता ही जा रहा है।
इसके अलावा कन्याओं के कम होने का एक ओर कारण, जन्म के बाद से बच्चियों की ठीक तरीके से देखभाल ना होने के चलते उनकी मृत्यु दर का अधिक होना भी है लेकिन अगर जैविक रुप से देखें तो लड़कियों में जीने की क्षमता ज्यादा होती है। एस.आर.एस. बुलेटीन सितंबर 2013 के अनुसार प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 56 है। जो कि देश में सबसे ज्यादा है। वही यह दर लड़कों में 54 तथा लड़कियों में 59 है। यानी शिशु मृत्यु में बालिका शिशु की मृत्यु दर बालक शिशु मृत्यु दर से ज्यादा है।
घटता लिंगानुपात एक सामाजिक समस्या है इस लिए इसे रोकने के लिए कानूनी प्रावधानों के साथ साथ समाज की तरफ से भी गंभीर प्रयास किये जाने की जरुरत है और इसके लिए समाज के पितृसत्तात्मक सोच में बदलाव लाना होगा। सरकारों को भी योजनाऐं चलाने के साथ साथ पितृसत्तात्मक सोच पर भी प्रहार करने की आवशकता है।