Magan’s wives Basanti Bai and Santu Bai with his youngest son Vinod
सुप्रीम कोर्ट का शानदार फैसला तमाम और लोगों के साथ मगन के लिए भी राहत लाया है| उच्चतम न्यायालय के फैसले ने मानवाधिकार संरक्षण की दिशा में एक लंबी छलांग लगा दी है| भले ही मृत्युदंड को कानूनी रूप से उचित ठहराया जाए, लेकिन क्या इसे सभ्य समाज का ध्योतक माना जा सकता हैñ मृत्युदंड की सजा एक अत्यंत शांत और अहिंसक मनुष्य में थोड़ी देर के लिए ही सही पर हिंसा का भाव पैदा कर देती है। धीरे-धीरे यह हिंसा समाज का अनिवार्य अंग भी बनने लगती है। मृत्युदंड की विषाक्तता को समाप्त करने की दिशा में आज का निर्णय एक महतवपूर्ण भूमिका निभाएगा लेकिन यह फैसला अभी आधी ही खुशी देता है क्यूंकि अभी भारत ने मृत्युदंड की सजा को पूरी तरह से खतम नहीं किया है|
आज आया सुप्रीम कोर्ट का यह शानदार फैसला तमाम और लोगों के साथ मगन के लिए भी राहत लाया है| उच्चतम न्यायालय के फैसले ने मानवाधिकार संरक्षण की दिशा में एक लंबी छलांग लगा दी है| कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि मृत्युदंड पाए अपराधियों की दया याचिका पर अनिश्चितकाल की देरी नहीं की जा सकती और देरी किए जाने की स्थिति में उनकी सजा को कम किया जा सकता है। इसके साथ ही, शीर्ष अदालत ने 15 दोषियों की फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने का आदेश दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि मृत्युदंड का सामना करने वाला कैदी यदि मानसिक रूप से अस्वस्थ है, तो उसे फांसी नहीं दी जा सकती और उसकी सजा कम करके आजीवन कारावास में बदली जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार मृत्युदंड का सामना करने वाले अपराधी और अन्य कैदियों को एकांत कारावास में रखना असंवैधानिक है।
इन पूरे 15 प्रकरणों में मध्यप्रदेश के सीहोर जिले के इछावर ब्लॉक के कनेरिया गांव के मगनलाल का भी एक प्रकरण था | 11 जून 2010 को मगनलाल ने अपनी 5 बेटियों को मौत के घाट उतारा था । उसका प्रकरण दर्ज हुआ। 3 फरवरी 2011 को सीहोर अदालत से उसे फांसी की सजा सुनाई थी। 12 सितम्बर 2011 को उच्च न्यायालय ने भी यह सजा बरकरार रखी और 9 जनवरी 2012 को उच्चतम न्यायालय ने इसकी पुष्टि कर दी। यही नहीं 22 जुलाई 2013 को राज्यपाल और राष्ट्रपति के यहां से भी इसकी दयायाचिका खारिज हुई और तुरत-फुरत 8 अगस्त 2013 को फांसी का दिन मुकर्रर कर दिया गया। यानी केवल तीन साल में ही प्रकरण का निपटारा। जबलपुर सेंट्रल जेल में बंद इस कैदी को फांसी देने के लिए जल्लाद भी लखनऊ से आ गया, रिहर्सल भी हो गई थी, लेकिन 7 अगस्त को फांसी की सजा को लेकर दिल्ली के कुछ प्रगतिशील वकीलों युग चौधरी, रिषभ संचेती, कॉलिन गोंजाल्विस और सिद्धार्थ ने रात 11 बजे इस पर स्थगन लिया।
एक नजर में यह त्वरित निपटारा था लेकिन यह त्वरित निपटारा हमारी न्यायिक व्यवस्था के ऊपर एक तमाचा भी है। यह दर्शाता है कि जो व्यक्ति आर्थिक रूप से कमजोर है, जिसके पास एक अच्छा वकील खड़ा करने की हिम्मत न हो, उसे पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में भी धड़धड़ाते हुए फांसी के तख्ते तक पहुंचा दिया जाता है। मगनलाल के इस प्रकरण में उसे विधिक सहायता तो मिली, लेकिन उसकी गुणवत्ता अच्छी नहीं थी और मगन का पक्ष कहीं भी ठीक से नहीं रखा गया। इस पूरे प्रकरण में न्याय व्यवस्था से कई जगह चूक हुई है। साधारणतया फांसी दिए जाने का कारण सहित लंबा आदेश आता है। शायद यह पहला ही ऐसा प्रकरण है जिसमें केवल एक शब्द में फैसला आया है जिसमें लिखा है ‘‘बर्खास्त”।
यहां पर हमें अमेरिका के कार्लोस डेलुना के प्रकरण को भी नहीं भूलना चाहिए| डेलुना आज फांसी की सजा के तमाम समर्थकों के आगे एक अनुत्तरित प्रश्न बन कर खड़ा है। और बार-बार उन्हें यह चेताता है कि कहीं इस गलत न्याय के चक्कर में किसी निर्दोष को सजा तो नहीं दे रहे हैं| 1983 में डेलुना अभी सिर्फ 20 वर्ष का था, जब उसे वांडा लोपेज नाम की नौजवान महिला की हत्या के आरोप में अमेरिका के टेक्सास राज्य में गिरफ्तार किया गया। अदालत ने उसे दोषी पाया और मृत्युदंड सुना दिया। 8 दिसंबर 1989 को सूई लगाकर उसे मौत की नींद सुला दिया गया। मुकदमे के दौरान डेलुना और उसके वकील बार-बार कोर्ट को बताते रहे कि लोपेज की हत्या उसने नहीं, बल्कि उससे मिलते-जुलते शारीरिक गठन वाले कार्लोस हर्नांदेंज नाम के व्यक्ति ने की है। मगर उनकी दलीलें ठुकरा दी गईं। अब कोलंबिया विश्वविद्यालय के कानून विभाग के एक अध्ययन से यह सामने आया है कि डेलुना सच बोल रहा था। यानी उसको दी गई मृत्युदंड की सजा गलत थी| पर अब कुछ नहीं हो सकता है क्यूंकि डेलुना मर चुका है|
हरहाल मगन के प्रकरण और आज के फैसले ने देश में फांसी के जिन्न को फिर से बाहर लाकर खड़ा कर दिया है। अजमल कसाब की फांसी ने इस बहस को फिर सुलगाया था कि भारत को मृत्युदंड बरकरार रखना चाहिए या नहीं। एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार भारत में पिछले दो दशक में केवल चार व्यक्तियों को फांसी दी गई है, लेकिन इस कतार में चार सौ पैंतीस नाम हैं। मानवाधिकार समूहों ने भी भारत में मृत्युदंड खत्म किए जाने की मांग फिर दोहराई है। वैसे 110 देश मृत्युदंड को नकार चुके हैं।
उच्चतम न्यायालय ने 1982 में ही कहा था कि मृत्युदंड बहुत विरल (रेअरेस्ट ऑफ रेयर) मामलों में ही दिया जाना चाहिए। मृत्युदंड के विरोध को लेकर संयुक्त राष्ट्र ने ऐसा प्रस्ताव पहली बार 2007 में पास किया था, जब उसके पक्ष में 104 और विरोध में 54 देशों ने वोट डाले थे| स्पष्ट है कि दुनिया की धारा अब मृत्युदंड के खिलाफ है और अधिक से अधिक देश अब इसका विरोध करने लगे है| भारत ने यहां पर मतदान के दौरान इस तर्क के आधार पर सजा-ए-मौत खत्म करने का विरोध किया कि हर देश को अपनी कानूनी व्यवस्था तय करने का संप्रभु अधिकार है| हम सभी इसके पक्ष में हैं लेकिन भारत देश को यह भी नहीं भूलना चाहिए उसने मानवाधिकारों के संरक्षण वाली अंतरराष्ट्रीय संधियों पर हस्ताक्षर किए हैं|
मृत्युदंड को लेकर हमारे यहां कानूनवेत्ताओं में भी बहस छिड़ी है| जाने-माने वकील प्रशांत भूषण और दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजेन्द्र सच्चर ने जहां मृत्युदंड को समाप्त करने की वकालत की है|भूषण ने फांसी की सजा को सरकार की तरफ से की गई हिंसा करार देते हुए कहा कि इससे हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ती है. उन्होंने कहा, ‘‘दरअसल हम ऐसा मान लेते हैं कि फांसी की सजा के डर से हिंसा कम होगी, लेकिन ऐसा नहीं होता| उन्होंने कहा कि सजा का उद्देश्य सुधारात्मक होना चाहिए, न कि जीवन की इहलीला समाप्त करना|
न्यायमूर्ति सच्चर ने भी कुछ इसी तरह के पक्ष रखे. उन्होंने कहा कि 1950 के बाद से अब तक केवल 57 अपराधियों को फांसी के फंदे से लटकाया गया है और ऐसा नहीं कि इसे समाप्त कर देने से अपराध की घटनाओं में बढोतरी होगी| उन्होंने सजा की इस पद्धति को अमानवीय करार देते हुए कहा कि दुनिया के जिन देशों ने मृत्युदंड को समाप्त करने का फैसला लिया है, वहां भी अपराध नियंत्रित हैं| जबकि वहीं जाने-माने संविधान विषेशज्ञ सुभाष कश्यप तथा आपराधिक मामलों के विषेशज्ञ वकील के. टी. एस. तुलसी ने मृत्युदंड को जारी रखने को जायज ठहराया है|
महात्मा गांधी ने कहा था कि मैं मृत्युदंड को अहिंसा के खिलाफ मानता हूं, अहिंसा से परिचालित व्यवस्था हत्यारे को सुधारगृह में बंदकर सुधरने का मौका देगी। अपराध एक बीमारी है, जिसका इलाज होना चाहिए। आंबेडकर ने भी कहा था कि मैं मृत्युदंड खत्म करने के पक्ष में हूं। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते मुझे लगता है कि जब भी कहीं कोई व्यक्ति फांसी पर चढ़ाया जाता है तो वह अकेला नहीं, बल्कि उसके साथ उसके मानवाधिकार भी सूली पर टांग दिए जाते हैं।
हमें यह तो अवश्य ही समझना होगा कि मृत्युदंड लोगों को सुधार का कोई भी अवसर प्रदान नहीं करता। हमें समझना होगा कि मृत्युदंड कभी भी न्याय का पर्यायवाची नहीं हो सकता। हाल ही में गृह मंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने एक इंटरव्यू में इस सजा के प्रावधान पर पुनर्विचार की जरूरत बताई थी लेकिन इन्होने ही कसाब को दी गई फांसी के समबन्ध में कहा था कि यह फांसी तो जनमत पर दी गई थी| उन्होंने कहा कि इस बारे में अपने गणमान्य व्यक्तियों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की तरफ से भारत के कई पत्र प्राप्त हुए हैं. उन्होंने कहा- “कई वर्षों से इस बात में चिंतन प्रक्रिया चल रही है. हमें इस पर पुनर्विचार करने की जरूरत है.” लेकिन यह पुनर्विचार कब होगा, यह कहना कठिन है|
मगनलाल भी इस जटिल प्रक्रिया में फंसा था और उसके मामले में आज अंतिम सुनवाई हुई बहरहाल देर से ही सही पर देश में मगन और उस जैसे कई लोगों की फांसी की सजा को उम्र कैद में बदले जाने की मांग ने जोर पकड़ा और आज के इस फैसले से मृत्युदंड को खतम करने की दिशा में मील का एक और पत्थर गाड़ दिया है| लेकिन यह फैसला अभी आधी ही खुशी देता है क्यूंकि अभी भारत ने मृत्युदंड की सजा को पूरी तरह से खतम नहीं किया है|