2 फरवरी 2013 को राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून को भारत में लागू हुए आठ साल हो जा रहे हैं. अनुभव यह बताते हैं कि जब हम अपनी व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिये नियम और प्रक्रियाएं बना रहे होते हैं तब समुदाय के सामने खडे होने वाले संकटों को पूरी तरह से नज़र अंदाज़ किया जाता है और उसे इस प्रक्रिया में सहभागी नहीं बनाया है. हम समुदाय को किनारे रख कर व्यवस्था को जनौन्मुखी और जवाबदेय बनाने की कवायद कर रहे हैं.
भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के स्तर पर वर्ष 2008 से यह निर्णय लिया गया था कि मनरेगा में भ्रष्टाचार का सबसे अहम् कारण सभी भुगतानों का नकद में होना है. उस प्रक्रिया में किसी भी स्तर पर जवाबदेहिता सुनिश्चित हो पाना लगभग असंभव था. प्रशासन कहता था हमने तो योजना का बजट जारी कर दिया है, पंचायत कहती थी कि हम भी मजदूरी का भुगतान कर चुके हैं. श्रम करने वाले यानी गाँव के मजदूर कहते थे हमें तो दो साल से मजदूरी ही नहीं मिली है. मास्टर रोल पर भुगतान के प्रमाण दर्ज कर दिए जाते थे. यह तय कर पाना मुश्किल होता गया कि आखिर किस हद तक iशिकायतों की जांच की जायेगी और यह कौन सुनिश्चित करेगा कि जांच निष्पक्ष होगी. मध्यप्रदेश में इस दौरान पंचायतों ने लगभग दो पंचवर्षीय कार्यकालों से साक्षात्कार कर लिया है, आठ हज़ार 541 सरपंचों की जांच हुई, पांच सौ से ज्यादा पद से हटाये गए और 3531 की जांच चल रही है. मजदूरों को नकद में मजदूरी का भुगतान होता था. इस पृष्ठभूमि में यह तय किया गया कि मजदूरी सहित हर बैंक के जरिये हो. इस सोच के तहत भारत सरकार ने निर्देश दिए कि हर मजदूर का बैंक खाता खोला जाए. मार्च 2011 तक ही एक सीमा तक नकद भुगतान के लिये ढील दी गयी. इसके बाद सब कुछ बैंक और पोस्ट आफिस की प्रक्रिया के जरिये होना था.
अब मंडला जिले में सभी मजदूरों के खाते खुल चुके हैं और दिल्ली की सरकार के निर्देशानुसार बैंक के जरिये ही भुगतान किये जा रहे हैं. हमें भोपाल या दिल्ली में बैठ कर लगता है कि बैंक भुगतान की प्रक्रिया बहुत आसान है. लालपुर पंचायत के 371 मजदूरों के खाते बीजाडांडी स्थित सतपुड़ा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में हैं, जबकि पंचायत का खाता स्टेट बैंक में है. वैसे तो एक बैंक खाते से दूसरे बैंक खाते में राशि जाने में 2-3 दिन लगते रहे हैं, पर यहाँ के मजदूर 2 महीनों तक अपने खाते में राशि आने के प्रतीक्षा करते हैं. अब यदि जिला प्रशासन 15 दिन में मजदूरी का भुगतान कर भी दे (जो की होता नहीं है) तो बैंक उनके हक़ को तोड़ कर टुकडे-टुकडे कर देते हैं. मजदूरी भुगतान में देरी के लिये जिला कलेक्टर, जनपद पंचायत के कार्यपालन अधिकारी और पंचायत के सरपंच को तो जवाबदेय बनाया गया है, पर बैकों की कोई जवाबदेहिता सुनिश्चित नहीं की गयी है.
मुझे पता नहीं कि चार साल पहले बैंक भुगतान से सम्बंधित केन्द्रीय नीति बनाने वालों ने मध्यप्रदेश की बैंकिंग व्यवस्था का कोई अध्ययन किया भी था या नहीं! मंडला जिले में वर्ष 2005-06 में विभिन्न बैंकों की 51 शाखाएं और 17 डाकघर–उप डाकघर थे, जिनमे 250 कर्मचारियों का स्टाफ 1.5 लाख खातों का संचालन करता था. सीधी सी बात है कि मनरेगा में मजदूरों के खाते खुलने की स्थिति में इस बैंकों को अपनी व्यवस्था और सेवाओं में बढौतरी करना चाहिए थी. अब यह देखिये. वर्ष जनवरी 2013 की स्थिति में मंडला के बैंकों और डाकघरों में 8.5 लाख खाते हैं. इस दौरान केवल चार निजी बैंकों में अपनी नयी शाखाएं जिला मुख्यालय पर (ग्रामीण या विकास खंड क्षेत्रों में नहीं) खोली है. खातों की संख्या लगभग पांच गुना बढ़ गयी पर शाखाएं 51 से बढ़ कर 55 ही हुई. इसी अवधि में कर्मचारियों की संख्या 250 से घट कर 195 रह गयी. एक उप डाकघर 3 से 5 हज़ार खातों का संचालन कर रहा है, पर वहां केवल दो लोगों का ही स्टाफ होता है. वास्तविकता यह है कि बैंक चाहे सरकारी क्षेत्र का हो चाहे निजी क्षेत्र का, ग्राहक बढने के बाद भी वे अब अपना स्टाफ कम कर रहे हैं ताकि बैंक संचालन की लागत कम हो और लाभ बढ़े और वे उन्ही इलाकों में अपनी शाखाएं खोल रहे हैं जहाँ उन्हे बड़ा व्यापार मिले. कुल मिला कर गणित फायदे का होना चाहिए. उन्हें इसकी कोई परवाह नही है कि मनरेगा अपने मकसद में कामयाब हो रही है या नही!
इस स्थिति में लालपुर पंचायत के मजदूर जब 22 किलोमीटर दूर बीजाडांडी स्थित बैक जाते हैं तो उन्हे बैंक से बेहद अप्रिय व्यवहार का सामना करना पड़ता है. सतपुड़ा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक ने दो वर्ष गुज़र जाने के बावजूद भी मजदूर खाताधारकों को पासबुक उपलब्ध नही करवाई है, जिससे ग्रामीणों को यह पता ही नही चल पा रहा है कि उनके खाते में कितनी राशि जमा की गयी, कितना आहरण हुआ और कितनी राशि शेष है. आज इनके लिये जानने वाली सबसे जरूरी बात यह है कि उनके खाते में मजदूरी जमा कब हुई! जिला प्रशासन का कहना है कि मनरेगा के तहत जिले में लगभग 2 लाख खाते खोले गए हैं, मनरेगा के खातों के संचालन के लिये स्टेशनरी व्यय की व्यवस्था न होने का तर्क बैंकों द्वारा दिया जाता है, हालांकि यही बैंक इन सरकारी योजनाओं के अंतर्गत लगभग 400 करोड़ रूपए का सालाना लेन-देन कर रहे हैं. ज्यादातर मजदूरों को बैंक पासबुक नहीं मिली है और जब वे पैसा निकाने जाते हैं तो उन्हे कई बार खाली हाथ वापस आना पड़ता है. केंद्र सरकार का एक पुरातन आदेश है कि पोस्ट आफिस को अपने खाते जिला स्तर पर सरकारी व्यावसायिक बैंक में रखना है. इसका मतलब यह है कि ग्रामीण डाकघरों से जब लोगों को अपना पैसा निकालना होता है तो उनकी मांग जिला स्तर पर मुख्य बैंक को जाती है, जिसमे समाशोधन में दो माह तक का समय लगता है. अब तक मनरेगा के तहत मध्यप्रदेश में डाकघरों में ११.२७ लाख खाते खोले गएँ हैं, इन खाता धारकों को अपनी मजदूरी पाने में कई दिनों का इन्तेज़ार करना पड़ता है.
यूँ तो निर्देश यही हैं कि शून्य राशि से ग्रामीणों के खाते खोले जाएँ और उनका संचालन किया जाए, मंडला जिले के बैंकों के अनुभव यह सामने आ रहे हैं कि वे हर खाते पर 700 रूपए का न्यूनतम बेलेंस रखवाएं. जिसके लिये वे मनरेगा के गरीब मजदूरों को न तो जानकारी दे रहे हैं न ही उन्हे यह समझा पा रहे हैं कि यह राशि उनके ही खाते में जमा रहेगी. कुल मिला कर यह बात भी स्पष्ट हो रही है कि बैंक खातों के संचालन के लिये मनरेगा के मजदूरों को कोई मार्गदर्शन या प्रशिक्षण नही दिया गया है. बीजाडांडी मे सक्रीय राष्ट्रीय ग्रामदूत परिषद के प्रतिनिधि सुफल सिंह मरावी कहते हैं कि पंचायतों और प्रशासन की तरफ से स्वेच्छिक संगठनों से संवाद करने की जरूरत को नज़रंदाज़ किया गया है. मध्यप्रदेश सरकार ने चौपाल की बैठकों का आयोजन तो शुरू कर दिया है, पर उसमे व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान की ही बात होती है, व्यवस्थागत समस्याओं के नियमित आलोचनात्मक विश्लेषण के लिये अब भी कोई मंच नहीं है.