INDIA: मनरेगा के हक आधारित प्रावधानों को किनारे किया जाना (मनरेगा 4) 

बेरोज़गारी भत्ता – न्याय का तकाजा यह है कि जब राज्य नागरिकों को उनके हक़ उपलब्ध न करवा पाए तब इसके अंगों (न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका) की जवाबदेहिता तय होना चाहिए. एक तरफ तो जिम्मेदार को दंड मिले और दूसरी तरफ प्रभावित व्यक्ति तो उसका मुआवजा मिलना चाहिए. आठ साल पहले लागू हुए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी क़ानून में एक महत्वपूर्ण प्रावधान था बेरोज़गारी भत्ते के भुगतान का. जिसका मकसद यह था कि व्यवस्था की गैर जवाबदेहिता और लापरवाही की स्थिति में उसके जिम्मेदारी तय की जाए ताकि समाज को उस लापरवाही का खामियाजा न भुगतना पड़े. बात साफ़ थी. क़ानून कहता था कि मांग करने पर लोगों को रोज़गार मिलेगा. काम देना सरकार की जम्मेदारी है और यदि वह पन्द्रह दिन में काम नहीं दे पाती है तो लोगों को बेरोज़गारी भत्ता दिया जायेगा.

यदि काम मांगने पर राज्य सरकार या पंचायत काम उपलब्ध करवाने में नाकाम रहे तो गाँव के लोग बेरोज़गारी भत्ता प्राप्त करने के हक़दार होंगे. लालपुर और लावर मुडिया पंचायत में वर्ष 2011 से पंचायत और जनपद मिल कर यह तय किये हुए हैं कि जब राशि जारी हो तभी काम शुरू किया जाए. और जब राशि नही होती है तब काम शुरू नही किये जाते हैं. इसीलिए मजदूरों के मांगपत्र भी नही लिये जाते हैं और पावती नही दी जाती है. लालपुर पंचायत के सरपंच कहते मदनसिंह वरकडे कहते हैं कि मुझे यह बताईये मेरे साथ कौन खड़ा है, जिसे मैं यह बता सकूँ कि समस्या क्या है? गाँव के लोग मानते हैं मैं काम नही देना चाहता जबकि सच यह है कि पंचायत को मांग भेजने के बाद 6-7 महीने तक राशि आवंटित नही हो रही है और जो आवंटन हो रहा है वह जरूरत की एक चौथाई है. अगर मैं आवेदन ले लूं तो बेरोज़गारी भत्ते का भुगतान कौन करेगा! यह सच है कि हम समय पर काम नहीं दे पा रहे हैं. 10 महीने गुज़र जाने के बाद भी हम इस साल का काम न खोल पाए.
मंडला जिले में वर्ष 2011-12 में मजदूरों ने 3325 दिन के बेरोज़गारी भत्ते की मांग की थी, पर एक दिन का भी भत्ता नही दिया गया. जनवरी 2013 तक 1601 दिन के भत्ते की मांग की जा चुकी थी, पर एक दिन का भी भत्ता नही दिया गया. व्यवस्था के अनुभव साबित कर रहे हैं कि मजदूरों को काम नही मिल रहा है, नए नियमों के कारण पंचायतों को मनरेगा का बजट नही मिल रहा है.

राज्य में आदिवासी जिलों से भत्ते के हक़ की सबसे ज्यादा मांग की गयी है. इस मामले में डिंडोरी, बालाघाट और मंडला सबसे सक्रीय रहे हैं. यह लोगों के सशक्तिकरण का एक संकेत है, पर इस संकेत को तोडने का काम मनरेगा के प्रावधान का उल्लंघन करके किया गया है. मध्यप्रदेश में वर्ष 2010 से 2013 तक 95908 दिन के बेरोज़गारी भत्ते की मांग की जा चुकी है, पर एक तय अघौषित नीति के तहत इस कानूनी अधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है. ऐसा नही है कि यह साबित करने की जरूरत है कि काम नही मिल रहा है, पर राज्य सरकार की मंशा यही दिखा रही है कि वह रोज़गार गारंटी को लोगों के हक़ के रूप में मान्यता देने तो तत्पर नही है. हम देख रहे हैं कि मनरेगा के तहत साल-दर-साल लोगों को मिलने वाले काम में कमी आती गयी है, परन्तु बेरोज़गारी भत्ते के प्रावधान को लागू करने में भारत सरकार और राज्य सरकारों यानी दोनों की इच्छाशक्ति कमज़ोर ही दिखी. वर्ष 2008-09 में मध्यप्रदेश में 195301 दिनों का बेरोजगारी भत्ता माँगा गया, पर एक भी दिन का भत्ता नही दिया गया. स्वाभाविक था कि लोगों में सरकार और योजना के इस प्रावधान के प्रति नाउम्मीदी बढ़ी. वर्ष 2009-10 में 36269 दिन का बेरोज़गारी भत्ता माँगा गया. इसमे से शहडोल में महज 4 दिन का 364 रूपए का भत्ता दिया गया. अगले साल यानी 2010-11 में 35891 दिन, 2011-12 में 30262 दिन और 2012-13 में 29787 दिन के भत्ते की मांग हुई पर एक दिन का भत्ता भी नही दिया गया. साफ़ पता चल रहा है कि सक्रीय समुदाय नाउम्मीद हो रहा है.

*This is the fourth article in an article series confronting with the issues plaguing the implementation of MNREGA in India.

About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: 00 91 9977704847

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-035-2013-HI
Countries : India,
Issues : Human rights defenders, Labour rights,