सरकार ने नये साल में देश के चुनिन्दा 20 जिलों में अभी 7 सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में हितग्राहियों के खाते में सीधे नकद राशि पहुंचाने का महाभियान शुरू किया है| सरकार के मुताबिक़ यह एक एतिहासिक कदम है और इससे देश में कायाकल्प हो जाएगा | लोग अब सीधे अपने खाते में राशि पायेंगे और बिचौलिए इस व्यवस्था में छिटककर दूर जा गिरेंगे | इस योजना को लेकर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि ”25 साल पहले स्वर्गीय श्री राजीव गांधी ने कहा था कि हर एक रुपये में से केवल 15 पैसे देश के गरीब लोगों तक पहुंच पाते हैं। 25 साल बाद, मुझे इस बात में कोई शक नहीं है कि सीधे नकद हस्तांतरण योजना यह सुनिश्चित करेगी कि सब्सिडी की पूरी धनराशि गरीब लोगों तक बिना किसी गड़बड़ी के पहुंच जाये।” रमेश ने इसे कांग्रेस पार्टी का क्रांतिकारी अभियान बताया है। वित्तमंत्री पी चिदंबरम का कहना है कि अभी सरकार को लाभार्थियों की जेब में एक रूपया पहुंचाने के लिए तीन रूपये लागत आती है। बाकी प्रशासनिक खर्च, अपव्यय और भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। नकद हस्तांतरण से सभी तरह के बिचौलिए खत्म हो जाएंगे। प्रशासनिक बोझ और भ्रष्टाचार खत्म होगा।
यह सब तो ठीक है लेकिन सरकार इस योजना को लेकर इतनी लालायित क्यों है ? सरकार अभी यह कह रही है कि वह इस नकद भुगतान व्यवस्था में वह राशन व्यवस्था को शामिल नहीं कर रही है | सरकार सब्सिडी वाली 34 योजनाओं में ही नकद राशि देने जा रही है, लेकिन सरकार के लिए मछली की आँख पीडीएस ही है | वह अर्जुन की तरह पूरी कवायद उसे ही भेदने के लिए कर रही है | हालाँकि सरकार के अन्दर ही इसे लेकर एक राय नहीं है | केंद्रीय खाद्य मंत्री के. व्ही. थामस कहते हैं कि हम अप्रैल से 6 केन्द्रशासित प्रदेशों में प्रयोग के तौर पर खाध्य सब्सिडी भुगतान की शुरुआत करेंगें | सरकार के मुताबिक छोटे होने के कारण इन राज्यों पर नजर रखना आसान है, लेकिन इसके पीछे एक दूसरी राजनीति यह है कि कई राज्यों के मुख्यमंत्री इस योजना का विरोध कर रहे हैं। योजना शुरू होने से पहले ही खटाई में ना पड़ जाए, इसलिए केन्द्रशासित प्रदेश चयनित किये गए हैं | यहाँ सब कुछ केंद्र के ही मार्फ़त किया जा सकता है | कोई रोक-टोक नहीं होगी और कोई विरोध भी नहीं होगा | लेकिन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश का इस मामले में बयान समझ से परे है कि पीडीएस को नकद हस्तांतरण योजना में पहले चरण के बाद भी शामिल क्यूँ किया जाए ? इससे पहले सरकार नकद सब्सिडी योजना का एक पायलट फेज दिल्ली की दो बस्तियों में कर चुकी है| इसकी रिपोर्ट भी सरकार ने अपने हिसाब से बनवाकर खूब वाहवाही लूटी | लेकिन कैश ट्रांसफर की योजना देश की जनता के प्रति अपने संवैधानिक दायित्वों से मुंह मोड़ने की सरकार की कोशिश है।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 47 यह कहता है कि राज्य का यह प्राथमिक दायित्व है कि वह लोगों के स्वास्थ्य, पोषण और जीवनस्तर को उठाने का प्रयास करे और इसी की पूर्ति के लिये राशन व्यवस्था लागू की गई थी | भारत में राशन व्यवस्था का इतिहास सन् 1939 से शुरु होता है | इस वर्ष सरकार ने खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर बम्बई में अनाज के वितरण की व्यवस्था शुरु की थी | इसके बाद 1956 में खाद्य विभाग की स्थापना होने के साथ ही वर्तमान व्यवस्था की नींव पड़ी| इसके अंतर्गत पूरे देश में सरकारी राशन दुकानों का जाल बिछाया गया | आज इन दुकानों की संख्या लगभग 4.78 लाख है| आज देश में होने वाले कुल उत्पादन 230 लाख टन में से सरकार महज 20 से 25 प्रतिशत अनाज की ही खरीदी करती है| इसमें से भी केवल 18 प्रतिशत ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली से वितरित होता है| सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कमजोर करने की साजिश 1991 के बाद से ही शुरु हो गई थी, जब ‘एलपीजी‘ युग यानी लिब्रलाईजेशन, प्राईवेटाईजेशन और ग्लोबलाईजेशन की शुरुआत हुई | नवउदारवाद के इस दौर ने तेजी से देश के हरेक नागरिक को विकास की एक इकाई में बदलना शुरु कर दिया | राशन व्यवस्था पर पहला बड़ा हमला 1991 से 1994 के बीच तक हुआ, जब यहां से मिलने वाले सामान की कीमतें दुगुनी की गई। उसके बाद खाद्यान्न में कटौती की जाने लगी| जून 1997 में इसे लक्षित, यानी गरीबी की रेखा से नीचे या ऊपर गुजारा कर रहे लोगों को ही दिए जाने की रस्म अदायगी भी पूरी हो गई| सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों से हाथ खींचने की कवायद यहीं से प्रारंभ की|
एक बार फिर से इस व्यवस्था पर संकट गहराना शुरु होने वाला है | एक ओर पूरे देश में राशन की दुकानों के सर्वव्यापीकरण की बहस जोर पकड़ रही है और प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक में इसे शामिल करने की बात की जा रही है लेकिन दूसरी ओर सरकार पिछले दरवाजे से इसमें सेंधमारी कर रही है| रंगराजन समिति इस बात से चिंतित है कि अनाज का कारोबार करने वाली कम्पनियों का क्या होगा? परंतु वह भूख और कुपोषण के शिकार लोगों या आत्महत्या कर रहे किसानों के बारे में कतई चिंतित नहीं है|
नकदी हस्तांतरण के चलते सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर हमला इसलिए भी किया जा रहा है, क्योंकि इस प्रणाली के लागू होने के बाद 30 करोड़ यानी लगभग 30 फीसदी आबादी को बाजार से खाद्यान्न खरीदना होगा यानी सब कुछ बाजार के हवाले हो जायेगा | फसल के हर मौसम में सरकार जो अनाज (लगभग 1.4 लाख टन प्रति वर्ष) समर्थन मूल्य पर खरीदती है, वह नहीं खरीदेगी और किसान को अपनी फसल औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को बेचनी पड़ेगी यानी वह भी बाजार के हवाले हो जायेगा| बाज़ार दोनों ही भाव तय करेगा यानी बाज़ार में किसान से गेंहू खरीदने का मूल्य और बाद में बाज़ार द्वारा ही मनमाने दामों पर बेचने का मूल्य| इससे न केवल किसान मारा जाएगा, बल्कि खेती का भी विनाश होगा और होगी निजी कंपनियों की चांदी|
जनवितरण प्रणाली के साथ सबसे बड़ी समस्या हितग्राहियों के पहचान की है| अभी भी हजारों गरीब परिवारों के पास राशनकार्ड ही नहीं हैं | सरकार के प्रत्येक सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि बीपीएल परिवारों की पहचान और अपात्रों को बाहर करने के काम में भारी खामियां हैं | सरकार द्वारा बनाई गई समितियां जैसे तेंदुलकर समिति व एनसी सक्सेना समिति अलग-अलग आंकडे़ प्रदर्शित करती हैं और योजना आयोग इससे भी अलग अपनी ही कहानी कहता है| दूसरी ओर सरकार को लगता है कि अनाज बांटने के बजाय लोगों के बैंक खाते में सीधे रकम हस्तांतरण कर देने से सारी समस्यायें हल हो जायेंगी और इससे लीकेज भी नहीं होगा | हमारे पास सरकार के अति महत्वाकांक्षी कार्यक्रम सामाजिक सुरक्षा पेंशन का उदाहरण है| बैंक खाते खोलने में परेशानी, बैंक तक उनकी पहुंच और बैंक खातों में रकम के सीधे हस्तांतरण के बावजूद बिचैलियों की मौजूदगी और रकम प्राप्त करने में देरी आदि अपनी कहानी आप कहते हैं| मनरेगा जैसी योजनाओं में भी बैंकिंग प्रणाली में भ्रष्टाचार और लेट-लतीफी के मामले लगातार सामने आते रहे हैं|
यदि सरकार ने अनाज के बदले नकद हस्तांतरण किया भी तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सरकार से मिला नकद धन अनाज खरीदने में ही इस्तेमाल किया जाएगा| हम सभी जानते हैं कि गरीब परिवार अक्सर कर्ज के जाल में घिरे होते हैं और उन्हें अपनी घरेलू आवश्यकताओं के लिए नकद धन की हमेशा जरूरत बनी रहती है| अतएव इस बात की प्रबल संभावना है कि वे इस धन का उपयोग खाद्यान्न खरीदने के बजाय दूसरी चीजों में करेंगे| इसका सबसे विपरीत प्रभाव महिलाओं पर पड़ेगा, जिन पर अपने और परिवार के लिए भोजन उपलब्ध कराने का जिम्मा होता है| सरकार के इस प्रस्ताव के प्रति रुझान को सीधे-सीधे निजीकरण की ओर बढ़ते कदम के रूप में देखा जाना चाहिए| समाज का चरित्र पितृसत्तामक होने के कारण क्या यह नहीं है कि यह राशि महिलाओं के हाथ में ना जाकर पुरुषों के हाथ में जाए और वह उसे अपनी प्राथमिकताओं (शराब पीना, जुआं खेलना) में खर्च करे |
सुप्रीम कोर्ट में दायर भोजन का अधिकार मामले में सर्वोच्च अदालत के आयुक्तों के सलाहकार बिराज पटनायक नकदी हस्तांतरण को सरकार की साजिश बताते हुए कहते हैं कि यह देश में भूख और गरीबी के हालात में और बढ़ोतरी कर देगा | सरकार को यदि पीडीएस में लीकेज का या परिवहन का भार कम करना है तो उसे सरकारी गेहूं की अधिकांश खरीदी पंजाब-हरियाणा से और चावल की खरीदी आंध्रप्रदेश से न करके विकेन्द्रित खरीदी-वितरण व्यवस्था को अपनाना चाहिए| उनका मानना है कि यह असामनता बढाने वाली योजना साबित होगी | इससे न केवल परिवारों के समक्ष खाद्य असुरक्षा का संकट पैदा होगा बल्कि खेती भी मरने की कगार पर आ जाएगी |
वर्ष 10-11 में देश का सब्सिडी बिल जीडीपी के 2.08 प्रतिशत यानी तकरीबन 1,64,153 करोड़ रुपयों तक पहुंच गया था | यह सब्सिडी कार्पोरेट से लेकर सरकारों के आका बैंक यानी एडीबी, विश्व बैंक, आईएमऍफ़ के आँखों की किरकिरी है | मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह दोनों ही घोषित तौर पर इन बैंकों के एजेंट रहे हैं तो संभवत: वे जाते-जाते ही आम आदमी को बाज़ार के हवाले पूर्ण रूप से करना चाहते हैं | अब जबकि रिटेल में एफ़डीआई तो आ ही गई है लेकिन उस रिटेल की उस दुकान में आटे-दाल को लेने आम आदमी तब तक नहीं पहुंच सकता, जब तक कि यह कमबख्त राशन व्यवस्था है | जब तक इस पीडीएस व्यवस्था को नेस्तनाबूद नहीं किया जाता है तब तक गांव से लेकर शहर तक का गरीब व्यक्ति (देश का 35 फीसदी व्यक्ति) वहां नहीं पहुंचेगा| सरकार कहती है कि खाद्यान्न में सब्सिडी बढ़ रही है और उसकी पूर्ति कर पाना मुश्किल हो रहा है| लेकिन सरकार यह बताना क्यों भूल जाती है कि उसने वर्ष 2004 से लेकर अभी तक 22 लाख करोड़ रुपये की टैक्स माफी उन कंपनियों को दी है जिनमें से अधिकांश गरीबों का खून चूस रही हैं| क्या इसका एक चौथाई हिस्सा भी भूख और कुपोषण से मुक्ति के लिये खर्च नहीं किया जा सकता है?
इस पूरे कारनामे को हमें विश्व बैंक की ताजातरीन रिपोर्ट के हवाले से भी देखना होगा| विश्व बैंक ने योजना आयोग के कहने पर ”बदलते भारत में सामाजिक सुरक्षा” विषय पर अपनी एक रिपोर्ट तैयार की है | इस रिपोर्ट में विश्व बैंक ने ग्यारह प्रमुख योजनाओं का पोस्टमार्टम किया है| रिपोर्ट कहती है कि इन योजनाओं में से सबसे ज्यादा गड़बडियां राशन व्यवस्था में हैं, जिसके लाभ से करीब 59 फीसदी लोग वंचित हैं| ग्रामीण इलाकों में महज तीन फीसदी और शहरी क्षेत्रों में दो फीसदी गरीब परिवारों तक इस योजना का अनाज पहुंच पाता है| रिपोर्ट यह भी कहती है कि जब इतने बड़े पैमाने पर लोगों को लाभ नहीं मिल पा रहा है तो जाहिर तौर पर लीकेज हो रहा है| रिपोर्ट इस तरह की व्यवस्थाओं में फिर नवाचारों की बात भी करती है| सरकार अब इस रिपोर्ट का हवाला देगी और नवाचार के नाम पर राशन दुकानों से खाद्यान्न के बजाय नकदी देने का फार्मूला अपना रही है | आज जबकि दुनिया के भूखे लोगों में हर पांचवां व्यक्ति भारतीय है, देश के पैंतालीस फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार हैं तथा 56 फीसदी महिलायें खून की कमी का शिकार हैं ऐसी विपरीत स्थिति में इस वंचित समूह के खिलाफ एक और सरकारी साजिश रची जा रही है, जिसे गरीबों के राशन पर सरकारी डाके की संज्ञा दी जा सकती है|
भोजन का अधिकार प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के आयुक्तों के राज्य सलाहकार (मध्यप्रदेश) सचिन जैन कहते हैं कि वास्तव में भारत की यह पहल दक्षिण अमेरिकी देशों में चल रहे नकद हस्तांतरण कार्यक्रमों की सफलता से प्रभावित है। परन्तु हमारा योजना आयोग यह नहीं देखा पा रहा है कि उन देशों में 80 फीसदी आबादी शहरों में रहती है। वहां उन परिवारों को आर्थिक मदद दिये जाने का प्रावधान है जो बच्चों को स्कूल भेजते हैं और वहां यह कार्यक्रम इसलिये सफल रहा, क्योंकि स्कूल बहुत सही ढंग से चलते हैं। वहां अस्पताल है, सेवाये हैं। जबकि भारत में बुनियादी सेवाओं के ढाँचे ही ध्वस्त है | ऐसे में यह एक घातक नीति साबित होगी। ब्राजील और मैक्सिकों जैसे देशों में 5 प्रतिशत से भी कम गरीब हैं, जबकि भारत में 46 प्रतिशत लोग गरीबी मे हैं। इसका मतलब यह है कि उन्हें बहुत कम जनसंख्या के लिये नकद हस्तांतरण की योजना चलाना पड़ती है। यह मॉडल भारत में संभव न होगा | जैन कहते हैं कि इसे आधार के साथ जोड़कर देखना एक बड़ी साजिश है |
28 नवंबर 2012 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुई एक जनसंसद में दिल्ली की मशहूर अर्थशास्त्री रितिका खेरा ने कहा कि सरकार ने कोई भी नई सब्सिडी की घोषणा नहीं की है, वह जो अब तक अनुदान देती आ रही, उसी को नये नारे के साथ फिर से परोसा जा रहा है | वहीँ सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय ने भी नकदी हस्तांतरण योजना को गैर जरूरी बताते हुये उसकी कड़ी आलोचना की तथा कहा कि सरकार को इसे तुरंत वापस ले लेना चाहिये। उन्होंने कहा कि आधार कार्ड की अनिवार्यता के जरिये नागरिकों की स्वतंत्रता कम की जा रही है, कहा जा रहा है कि आधार कार्ड नहीं तो स्कॉलरशिप नहीं, नरेगा में काम नहीं, पेंशन नहीं ? यह कैसी मनमर्जी है सरकार की ?
भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने कहा कि कैश ट्रांसफर केवल जनता को बहलाने का तरीका है, लोगों में भ्रम फैलाया जा रहा है कि जिनका आधार कार्ड बन गया है, उन्हे पैसा मिलेगा, जबकि ऐसा होगा नहीं, उन्होंने कहा कि यह लोगों के जल, जंगल, जमीन, अन्न, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत मुद्दों को दबाने का प्रयास है। माकपा सांसद वृंदा कारत ने कहा कि सरकार इसके जरिये सार्वजनिक संसाधनों तक गरीबों की पंहुच को खत्म करना चाहती है| मेधा पाटकर ने कहा कि गरीबों को कैश ट्रांसफर और अमीरों को लैंड ट्रांसफर, यह सरकार की गजब नीति है |
भारत में नकदी हस्तांतरण को लेकर कुछ व्यवहारिक दिक्कतें हमेशा साथ चलने वाली हैं | आज जबकि सरकार के पास बैंको की कमी है तो सरकार कैसे इस योजना को बेहतर कर पाएगी, यह समझ से परे है | आज देश में लगभग 6 लाख गाँव हैं लेकिन केवल 78,000 गाँवों में ही बैंक हैं | देश में तकरीबन 98,000 बैंक शाखाएं हैं जिनमें से 60,000 शाखाएं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हैं | देश के पूरे गाँवों में बैंकों की व्यवस्था करना ना तो आसान है और ना ही व्यवहारिक | एटीएम के जरिये यह व्यवस्था की जा सकती है | इसी कारण सरकार अगले वित्त वर्ष में अपने एटीएम के कारोबार को बढाकर 1.3 लाख करोड़ से बढाकर 1.63 लाख करोड़ करना चाहती है | इस तरह से बैंकिंग भी एक बड़ी चुनौती है | राजस्थान के कोटकासिम में जहाँ कि सरकार ने नकदी हस्तांतरण का प्रयोग किया वहां बैंक बहुत दूर होने के कारण लोग खाता ही नहीं खुलवा पाए | ऐसे में 80 फ़ीसदी हितग्राही राशन की दुकान से तीन महीनों से केरोसीन ही नहीं ले पाए | ज्यादातर लोगों को सब्सिडी की राशि निकालने के लिए बैंक के तीन से छह चक्कर लगाने पड़े |
देश के कई गांवों में आज भी बिजली नहीं है | जहाँ पर बिजली है वहां पर बिजली की उपलब्धता घंटों तक नहीं रहती है | एसी स्थिति में ये वहां एटीएम खुल भी जाएँ तो उनके सामने बंद रहने की बड़ी चुनौती है | बिजली के बंद रहने पर ब्राडबेंड कनेक्शन भी उपलब्ध नहीं हो पायेगा | अब जबकि यह सब कुछ प्रयोग के तौर पर तो शायद बहुत हद तक किया जा रहा है तो शायद बहुत हद तक मामला नियंत्रण में रहे लेकिन जब यह थोक में (समस्त जगहों से एक साथ) होगा तो फिर यह कई गंभीर चुनौतियों सामने लेकर आएगा |
यह भी हो सकता है कि इस योजना का राजनीतिक लाभ कांग्रेस को मिल जाए, लेकिन इसके विपरीत होने के आसार भी कम नहीं हैं | इस बात का बिगुल भी छतीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने अपने यहाँ इस योजना अपने यहाँ लागू न कर व इस योजना की तमाम कमियाँ गिनाकर अपनी जनता के समर्थन में फूंक दिया है| यह भी हो सकता है कि बीजेपी समर्थित समस्त राज्य अपने स्तर इसका विरोध कर कांग्रेस को राजनैतिक रोटियाँ सेंकने से रोक दे और उसके मंसूबों को ही कामयाब न होने दे |
About the Author: Mr. Prashant Kumar Dubey is a Rights Activist working with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. He can be contacted at prashantd1977@gmail.com