INDIA: एक “गे”(समलैंगिक) का प्रधानमंत्री को पत्र

Prashant Kumar dubey

10 दिसंबर, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस

प्रति,
माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी जी 
भारत सरकार 
शुभकामनायें

मैं भोपाल का निवासी नवीन हूँ, एमएसएम (मेन हू हेव सेक्स विथ मेन) समुदाय से ताल्लुक रखता हूँ| बोलचाल की आम भाषा में आप मुझे “गे” भी कह सकते है| वैसे मेरे समुदाय को समलैंगिक के रूप में भी जाना जाता है| मेरी एक वैश्विक पहचान यह भी है कि मैं एलजीबीटी समुदाय का सदस्य हूँ| एलजीबीटी यानी लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर| यानी मैं व्यक्ति के रूप में तो एक ही हूँ, लेकिन मेरी पहचान अनेक हैं| समाज के तुच्छ रवैये के कारण आज तक मैं सार्वजनिक रूप से अपने समलैंगिक होने की बात स्वीकार नहीं कर पाया हूँ इसलिए नवीन भी सही नाम नहीं है| यही हाल मेरे पार्टनर का है| मेरे घर में भी यह बात, किसी को पता नहीं है| यानी मैं अपनी एक और भूमिका यानी क्लोजेट (तकनीकी शब्द, जो व्यक्ति अपनी लैंगिक पहचान सार्वजनिक नहीं करते हैं) की भूमिका में भी हूँ|

हाल ही में आपकी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हाल ही में हमारे अधिकारों का समर्थन करते हुये कहा है कि माननीय उच्चतम न्यायालय को आईपीसी की धारा 377 पर फिर से समीक्षा करने की जरूरत है। समलैंगिक संबंधों को अपराधमुक्त किया जाना चाहिए। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने भी उनकी बातों का समर्थन करते हुए कहा कि आज मानवाधिकारों के प्रकाश में यह फैसला बेमानी सिद्ध होता है| कुछ दिनों पहले आपकी सरकार के ही केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने भी कहा था कि समलैंगिकों समेत सभी के मानवाधिकार हैं और उनकी रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है। इसके मायने यह हुए कि मेरी एक पहचान धारा 377 के साथ भी जुडी है|

प्रधानमन्त्री जी, आप तो जानते हैं ही हैं कि वर्ष 1861के पहले हमारे देश में समलैंगिक सम्बन्ध अपराध नहीं थे| गौरतलब है कि जब आप गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब ही वर्ष 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दो वयस्कों के बीच समलैंगिंक संबंधों को जायज ठहराया था| वर्ष 2013 में ने उच्चतम नयायालय ने समलैंगिक संबंधों को अपराध करार देने वाली आईपीसी की धारा 377को सही ठहरा दिया था| इसके मायने समलैंगिक संबंध फिर से अपराध की श्रेणी में आ गये, जो कि अभी तक हैं|

प्रधानमन्त्री जी, आपको ज्ञात हो कि हमारे देश में जिस ब्रिटेन के शासनकाल में यह धारा आई थी, उसी ब्रिटेन ने अपने यहाँ पर वर्ष 1967 में ही समलैंगिकता को अपराध मानने वाले कानून को निरस्त कर दिया| परंपरागत और रूढ़ीवादी देश और हमारे पड़ोसी चीन, ने भी अपने यहाँ पर 1997 में ही इस कानून को निरस्त कर दिया था| अपने एक और पड़ोसी देश नेपाल ने 2007 में तथा अमेरिका ने बहुत पहले ही अपने यहाँ इस तरह के कानून को निरस्त कर दिया था| प्रधानमंत्री जी, गौर करने लायक बात यह है कि इन सभी देशों में हाल ही में आपकी यात्राएं हुई है| आपने वहाँ पर सांस्कृतिक विविधता के साथ-साथ लैंगिक विविधता और उसके प्रति सम्मान को भी देखा होगा| आपने यह भी देखा होगा कि वहाँ पर हम जैसे लोगों को कितने अधिकार प्राप्त हैं! और यदि नहीं देखा है तो अब आप किसी देश जाएँ तो अवश्य देखिएगा| यह भी सोचियेगा कि वे देश ऐसा कर सकते हैं तो फिर तो हम एक लोकतांत्रिक देश हैं, और फिर भी अभी उसी जगह पर हैं जहाँ कि 1860 में खड़े थे!

आपके पूरे कार्यकाल में और चुनाव के समय से “विकास” शब्द बहुत ही प्रचलन में रहा है| लेकिन सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन कहते हैं कि “किसी जगह पर समलैंगिक आचरण की स्वतंत्रता है या नहीं”, यह इससे तय होता है कि मानव सभ्यता का कितना विकास हुआ है| यानी आपको इस शब्द के सही मायनों पर अभी बहुत सोचना है, हमारे मामले में तो विशेष रूप से| हम तो अपने यहाँ सभी लैंगिक विविधताओं को एक साथ रखते हैं और उनका सामान करते हुए विकास की बात करते हैं, इसलिए हमने अपने संघर्ष में अपने झंडे को रंग बिरंगा रखा है|

प्रधानमंत्री जी, कुछ लोग कहते हैं कि हमारा देश धर्म का, मान्यताओं का देश है और इसका अपना इतिहास है| यानी उनकी नजर में समलैगिंकता अपराध है| ऐसा कुछ धार्मिक और कट्टरवादी संगठन भी मानते हैं और उनका आपकी पार्टी से करीबी रिश्ता है| मैं, यह तो मानता हूँ कि आपकी सरकार यदि संसद में समलैंगिकता पर संसद में बहस कराकर एक सख्त राय बना दे, तो भी ये धार्मिक संगठन इसकी खिलाफत करने से नहीं चूकेंगे| वे करेंगे| लेकिन तब हमारे पास भी अपनी आवाज बुलंद करने के लिए एक हथियार होगा| वैसे आपके लिए शीतकालीन सत्र में ही बहस कराने के लिए माकूल वक्त भी है क्योंकि अभी तो विपक्षी दलों के नुमाइंदे भी इस मुद्दे पर आपकी सरकार के मंत्रियों के सुर में सुर मिला रहे हैं|

प्रधानमन्त्री जी, आप तो जानते ही हैं कि समाज ने भी हमारे साथ बहुत ही दोयम दर्जे का व्यवहार किया| मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप यदि यह धारा समाप्त करा देंगे तो फिर हम तर्कों के आधार पर समाज से लड़ेंगे| पहले समाज ने हम समलैंगिकों को मानसिक बीमार कहा| पर 1973 में अमेरिकी मनोचिकित्सक संघ ने माना कि यह कोई मानसिक समस्या नहीं है और 1980 में इसे अमेरिका के “डायग्नोस्टिक एंड स्टेटिस्टिकल मैनुअल ऑफ मेंटल डिसोर्डर्स” यानी मानसिक विकृतियों के वर्गीकरण की सूची से मतदान की प्रक्रिया के तहत बाहर कर दिया है| समाज ने फिर कहा कि समलैंगिक संबंधों से सामाजिक असंतुलन बिगडेगा, क्यूंकि वही रिश्ता मान्य है जो कि पुनुरोत्पादन रूपी प्रतिफल दे| वैज्ञानिक आधार पर यह दलील भी खारिज हुई जबकि यह पता चला कि स्त्री और पुरुष की स्वावाभिक कामक्रिया का एक नगण्य सा प्रतिशत ही प्रजनन में परिणत होता है और उसी से जनसंख्या विस्फोट हुआ पड़ा है| तो हमने कहा कि ऐसा नहीं है कि 1 फीसदी से भी कम समलैगिंक यदि प्रजनन नहीं कर पाए तो, मानव जाति लुप्त हो जायेगी!

ये दोनों तर्क विज्ञान ने गलत साबित किये| तो समाज ने इसके आगे जाकर कहा कि इन संबंधों से एड्स फैलेगा| गौरतलब है कि कुछ इसी तरह की दलील दिल्ली उच्च न्यायालय में चल रहे प्रकरण के दौरान सरकार(तत्कालीन) ने भी रखी| यह दलील कुछ ऐसे खारिज हुई जबकि न्यायालय ने सरकार से इस संबंध में आवश्यक शोध और रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा, तो सरकार ने चुप्पी साध ली| प्रधानमन्त्री जी, नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (नाको) के ही एक अध्ययन की मानें तो विषमलिंगियों द्वारा एड्स वायरस के फैलाव का प्रतिशत 87.4 है|

प्रधानमंत्री जी, समाज की इसी दिक्कत के चलते हमें, कभी वह माहौल ही नहीं मिल पाया, जिसमें हम खुलकर अपने रुझानों (खासकर लैंगिक) को व्यक्त कर सकें| आखिर समाज, उसे ही क्यों सच मानता है जो कि बहुसंख्यकों द्वारा अपनाया जाता है| मानने की बात तो छोड़ दें, वो तो इसे थोपता भी है| इन सब कवायदों के पीछे समाज के अपने पारंपरिक खांचे हैं और उसकी उनसे निकलने की तैयारी नहीं है| समाज पर तो आपका बस नहीं है, पर सरकार तो संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने और उनकी वकालत करने के लिए है? और आप उसके प्रधानमन्त्री हैं|

प्रधानमन्त्री जी, आपने अभी संविधान दिवस पर संसद में बहुत ही उम्दा भाषण दिया| आपने कहा कि संविधान सभी को बराबर अधिकार देता है| पर प्रधानमंत्री जी, सोचनीय यह भी है कि इसी लोकतांत्रिक देश में हमारे समुदाय के तो सभी संवैधानिक अधिकार ताक पर रख दिए गये हैं! क्या समाज और सरकार हमारे गरिमामयी जीवन जीने तथा निजता के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रही है? क्या यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का भी उल्लंघन नहीं है? क्या यह सही है कि केवल एक समुदाय के अपने पसंद के लैंगिक रुझान पर समाज के तमाम ठेकेदार लामबंद हो जायेंगे और मानवाधिकारों के संरक्षण का दावा ठोंकने वाली आपकी सरकार भी उनके साथ ताल ठोंकती नजर आएगी? आखिर क्यों संसद इस मसले पर मौन नजर आती है? और वह भी तब जबकि आप संसद में संविधान की खूबियाँ बताते नहीं थकते हैं| निःसंदेह संविधान में तो खूबी है, फिर आपकी सरकार संसद में बहस कराकर हमें हमारे अधिकार देने के लिए धारा 377 को खत्म क्यों नहीं करती है?

हालाँकि जब भी धारा 377 पर बहस छिड़ जाती है तो हमारे अन्य मूल सवाल पार्श्व में चले जाते हैं| समलैंगिकों के साथ एचआईव्ही और एड्स का खतरा तो बढ़ रहा है| इसके पीछे के गंभीर कारणों में से एक है कि आईपीसी की धारा 377| अब आप पूछेंगे, वह कैसे| तो वह ऐसे कि समलैंगिक अपनी पहचान छिपाने के चलते एड्स का विषाणु साथ लिए घूमता है लेकिन अपनी जांच नहीं कराता है और जिसके चलते खतरा और बढ़ जाता है| ऐसा माना जाता है कि समलैंगिक खासकर एमएसएम का एक बड़ा प्रतिशत, एड्स के प्रभाव में है|

यह मसला केवल भारत का ही हो, ऐसा भी नहीं है| वर्ष 2011 में स्वास्थ्य के क्षेत्र की जानी-मानी पत्रिका प्लासवन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार सेनेगल(अफ्रीका) में वहाँ की अपराध संहिता की धारा 319 के अनुसार समलैंगिकता अपराध है| जमैका के भी यही हाल हैं| ग्लोबल फोरम ऑन एचआईव्ही के विश्वव्यापी अध्ययन में यह बात सामने आई कि जिन देशों में समलैगिक संबंधों को कानूनी रूप से अपराध माना गया है, उन देशों में एचआईव्ही के प्रकरणों में प्रचंडता आई है| अध्ययन आगे यह भी बताता है कि एशिया में एमएसएम के बीच एचआईव्ही धनित व्यक्तियों के मामले ज्यादा हैं क्योंकि एशिया के लगभग 20 देशों में समलैंगिक यौन संबंध कानूनन अपराध के दायरे में हैं| वर्ष 2013 में भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा धारा 377 पर आये फैसले के बाद यूएनएड्स नामक संस्थान ने औपचारिक रूप से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर यह कहा था कि इस फैसले से समलैंगिकों के एचआईव्ही एड्स के उपचार में कमी आई है, जबकि दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के बाद से एमएसएम के उपचार के प्रकरण आश्चर्यजनक रूप से 50 फीसदी तक बढ़ गये थे|

इस समस्या का दूसरा छोर भी है कि यदि समलैंगिक अपने स्वास्थ्य को लेकर सचेत रहते हुये सरकारी अस्पताल पहुँच भी जाए तो इस बात की क्या गारंटी है कि वहाँ उनका इलाज हो ही जाएगा? भारत में सभी शासकीय अस्पतालों में न तो इस तरह की सुविधा ही उपलब्ध है और न ही प्रशिक्षित स्टाफ ही उपलब्ध है| वैसे तो यह सुविधा है ही नहीं, लेकिन यदि यह उपलब्ध हो भी जाये तो फिर निजता का सवाल मौजूं है| राजीव स्मृति गैस पीड़ित पुनर्वास केंद्र, भोपाल के अध्ययन में यह सामने आया कि स्वास्थ्यगत (विशेषतः यौन रोग) दिक्कतों के बाद भी केवल 6 फीसदी लोग ही शासकीय संस्थाओं में जाना पसंद करते हैं| उसके पीछे एक कारण निजता भी है| समुदाय के लोगों का कहना है कि हालाँकि निजी इलाज महंगा है लेकिन फिर भी वहाँ कम से कम निजता तो है|

सबके लिए स्वास्थ्य, आल्मा आटा सम्मलेन 2000, से उपजा वाक्य है| यह वाक्य अपने मूर्त रूप में भारत में तो धरातल पर अभी तक तो नहीं आ पाया है क्योंकि 11वीं पंचवर्षीय के अंत में हम सार्वजनिक स्वास्थ्य पर जीडीपी का 1.04 फीसद खर्च कर रहे थे| वर्तमान में हम 1.2 फीसद राशि ही स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं| अब 12वीं योजना के अंत में इसे 2.5 फीसद करने का लक्ष्य है| इन सब कवायदों के बीच हम,जो कि पहले से ही नीतियों और समाज के स्तर पर हाशिए पर है, उनके लिए स्वास्थ्य पर बहस तो दूर की कौड़ी है, क्योंकि अभी तो हमारे सामने अस्तित्व का संकट है|

प्रधानमंत्री जी, इस बार आपने दीवाली पर प्रेस मिलन रखा था| मुझे विश्वास था कि मीडिया प्रतिनिधि जरूर आपसे हमारे मुद्दे पर राय मागेंगे| अभी हमारा मुद्दा बहुत ही चर्चा में जो है| पर आपने उन्हें सैल्फी के गणित में ऐसा उलझाया कि वे खुद ही भूल गए कि वे चौथे स्तंभ(कथित) से हैं| ऐसे में हमारे मुद्दे कहाँ याद रहने वाले हैं उन्हें!! मीडिया ने भी हमें खास तवज्जो नहीं दी है पर उसमें आपका कोई दोष नहीं है|

प्रधानमन्त्री जी, हमने सुना है कि आपके “मन की बात” कार्यक्रम को लोग बड़े ध्यान से सुनते हैं| प्रधानमन्त्री जी मैं और मेरे जैसों लाखों लोग भी आपके इन संदेशों में अपने लिए स्थान ढूंढ रहें हैं| मुझे पक्का यकीन है कि आप जल्दी ही इस विषय पर बात करेंगे| आपसे एक गुजारिश और है कि जब आप हमारे लिए सन्देश दें तो समाज से हमारी ओर से एक आग्रह भी कर दें कि वह हमें ध्यान से सुने| और दया से नहीं बल्कि इस लिहाज से स्वीकार करे कि आपकी तरह ही हम भी हैं| वैसे आप संसद के शीतकालीन सत्र में भी हमारे मसले पर बहस करा दें तो हम मानवाधिकार दिवस भी मना पायेंगे| और फिर मैं भी आपको वादा करता हूँ कि आपको अपना असली नाम और असली पहचान बताने दिल्ली जरूर आउंगा|

आपका ही

अपनी पहचान को तलाशने में शिद्दत से जुटा नवीन

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About The Author: 
Mr. Dubey is a Humsafar Trust fellow researching on LGBT community. He can be contacted at prashantd1977@gmail.com.

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-064-2015
Countries : India,
Issues : Administration of justice, Democracy, Extrajudicial killings, Institutional reform, Judicial system,