आजादी के 67 बरस बीत जाने के बाद हमारे देश के तकरीबन आधे बच्चे कुपोषित हैं। बाल मजदूरी, मानव तस्करी, यौन शोषण, जबरन अंगदान, विकृत कर भीख मंगवाने से लेकर ऐसा कोई भी अत्याचार नहीं है जो हमारे बच्चों पर नहीं हो रहा हो। वहीं दूसरी तरफ सरकारें इस अत्याचार व अराजक वातावरण में बच्चों की उम्र घटाकर 16 वर्ष पर लाना चाहती है। यह पूरी व्यवस्था सोचने पर मजबूर कर रही है कि क्या कोई अपने बच्चों के प्रति इतना क्रूर हो सकता है। स्वतंत्रता दिवस पर इस गंभीर समस्या पर महत्वपूर्ण आलेख |
आजादी के मायने क्या यही हैं कि हम एक आजाद देश में महज सांस लेते हैं या हमें अपनी तरह से जीने का सुरक्षा का, सहभागिता का, विकास का अधिकार हो और हम सम्मान के साथ जी सकें। यह दूसरा विकल्प ही आजादी का सारगर्भित, व्यापक और वास्तविक विकल्प है। आजादी के 67 सालों बाद भी बच्चे अभी भी वास्तविक आजादी का मुंह ताक रहे हैं। भारत में दुनिया के कुल बच्चों में से 19 फीसदी रहते हैं] जो कि देश का 42 फीसदी हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या की आज क्या हालत है ? बच्चे भारत में अधिकारों की छेद भरी चादर से बखूबी लिपटे हैं और उन छेदों में से हमें बच्चों के साथ दुर्व्यवहार और अधिकार हनन की खबरें मिलती रहती हैं। बच्चों की स्थिति को हम चारों अधिकारों जीवन] सुरक्षा] सहभागिता और विकास के अधिकार चक्र में समझने का प्रयास करते हैं।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार देश में आधी महिलाएं खून की कमी से ग्रसित हैं। यानि देश में बच्चे के जन्म से पहले ही उसके लिए विपरीत स्थिति पैदा होर ही है। आज भी विकासशील देशों में पैदा होने वाले कम वजन के बच्चों में से 35 फीसदी भारत में पैदा होते हैं। हमारे 42 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। इतना ही नहीं 69 प्रतिशत बच्चे स्वयं भी खून की कमी का शिकार हैं। तमाम प्रगति और सूचकांकों की उछाल के बीच हम आज भी सालाना 25 लाख बच्चों को मरते देखने के लिए अभिशप्त हैं। देश के केवल 40 फीसदी बच्चें ही पूरी तरह से टीकाकृत हो पाए हैं। इस वजह से हर 16 बच्चों में से 1 बच्चा एक साल की उम्र पूरी करने से पहले और हर 11 बच्चों में से 1 बच्चा पांच वर्ष की उम्र पूरी करने से पहले दम तोड़ देता है। इस दिशा में 11 वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) ने बहुत ही क्रांतिकारी लक्ष्य निर्धारित किये थे] लेकिन आज तक हम उसके आसपास भी नहीं फटके हैं। दूसरी और व्यापक भुखमरी की स्थिति बच्चों के लिए बहुत ही गंभीर संकट पैदा करती है।
आज भी मात्र 37 फीसदी बच्चों का ही जन्म पंजीकरण सुनिश्चित होपाया हैं। यह मुद्दा नागरिकता और बच्चों की पहचान से जुड़ा है। हम गिरते लिंगानुपात को भी नहीं रोक पाए हैं और आजादी के बाद से पहली बार सबसे कम बाल लिंगानुपात (914) के दौर में हैं। बड़ी संख्या में बच्चे मजदूरी में लगे हैं। जनगणना 2011 के आंकड़ों को देखें तो 5 से 14 वर्ष तक के 1.01 करोड़ बच्चे बाल श्रम में लिप्त हैं। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अनुसार हर साल 45,000 बच्चे खो जाते हैं और उनमें से 11,000 बच्चे फिर कभी नहीं मिलते। जाहिर है कि ये बच्चे मानव तस्करी का शिकार हो रहे हैं। हम अभी भी बालविवाह की काली छाया से नहीं उबर पाए हैं] हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार अभी भी विश्व की एक तिहाई बालिका वधू भारत में हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट की मानें तो देश के 16 राज्यों में आंतरिक संघर्ष चल रहे हैं और इससे पीडि़त बच्चे बहुत ही कठिन परिस्थितियों में जी रहे हैं।
हमारे संविधान में यह लिखा गया है कि 10 साल के भीतर (सन 1950 से) 6-14 वर्ष की उम्र के सभी बच्चे पाठशाला की परिधि में होंगे] लेकिन यह आज तक यह संभव नहीं हो सका है। आज भी लाखों बच्चे विद्यालयों से बाहर हैं। हालांकि हमने पांचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79) के बाद से इस दिशा में और गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया था और अब तो हमारे पास शिक्षा का अधिकार कानून (सन (2009) भी है] उसके बाद भी अपेक्षित प्रगति देखने को नहीं मिल रही है। हम अधोसंरचना विकास में पिछड़े हैं] गुणवत्ता से कोसों दूर हैं] सामाजिक लिंगभेद के चलते हम अभी तक लड़कियों की शिक्षा के आंकड़े को बराबरी पर नहीं ला पाए हैं। जनसंख्या का 6 फीसदी विकलांग हैं लेकिन हम उनमें से अधिकांश क¨ विद्यालय तक लाने में विफल रहे हैं। हमारे पास उनके लिए पर्याप्त संसाधन भी नहीं हैं। हम जातिप्रथा व छुआछूत से नहीं उबर पाए हैं] जिसका असर शिक्षा पर भी दिखता है। बच्चे पाठशालाओं में आ भी जाएं तो भी हम अनेकानेक कारणों से उन्हें वहां रोक पाने में सक्षम नहीं हैं।
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के 2 अप्रैल 2013 के पत्र के अनुसार शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के चार साल बाद भी देश 6.69 लाख शिक्षकों की खतरनाक कमी से जूझ रहा है। देश के लगभग आधे विद्यालयों में बच्चों को साफ शौचालय उपलब्ध नहीं हैं। पोषण की कमी के अभाव में बच्चे विद्यालयों में ध्यान नहीं लगा पाते हैं और ड्रॉपआउट होते हैं। शिक्षा के लिए 6 फीसदी बजट आजाद भारत का एक ख्वाब था तो, आज भी अधूरा है। इन सभी स्थितियों के मद्देनजर भारत के सामने 2015 तक सबको शिक्षा देने के लिए तय किये गए सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य को हासिल न कर पाने का गंभीर संकट खड़ा है।
संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता] 1989 कहता है कि बच्चों से जुड़े हर मामलों में उनकी राय ली जाना बहुत जरुरी है। इसके विपरीत देश में बन रहे नीति व नियमों में बच्चों की सहभागिता सुनिश्चित नहीं की जाती है। ग्रामसभा में बच्चों की बातें सुनी नहीं जाती हैं। बच्चों को अपनी बात कहने और हमारे द्वारा उनकी बात सुनने के लिए कोई मंच नहीं है। बच्चे बलात विस्थापन की विभीषिका से जूझ रहे हैं] लेकिन पुनर्वास नीतियों में बच्चों की राय लिया जाना तो दूर बल्कि ‘बच्चा’ शब्द तक का जिक्र नहीं मिलता।
यानी विकास के इस पूरे चक्र में बच्चे बहुत ही निचले पायदान पर हैं। क्या पिछले 67 वर्षों में भारत ने बच्चों के विषय में सोचा ही नहीं! ऐसा नहीं है] बल्कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 14] 15] 24] 33] 45 आदि में बच्चों के समबन्ध में एक अनुकूल वातावरण तैयार करता है। हमने बच्चों के सम्बन्ध में कई अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं पर सहमति जताई है और उन्हें अंगीकृत किया है। जिनमें से संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता 1989, सीडा प्रमुख हैं। हमने अपनी आंतरिक संरचनाओं में भी परिवर्तन किए हैं जैसे कि हमने बच्चों को ध्यान में रखकर एक अलग मंत्रालय बनाया है। राष्ट्रीय बाल नीति है। नेशनल चार्टर 2003 और नॅशनल प्लान ऑफ एक्शन] 2005 भी है। हमने बच्चों हेतु बजट की प्रक्रिया शुरू की है। पांचवीं पंचवर्षीय योजना के बाद से बच्चों को केंद्र में रखकर सोचना शुरू किया है। हमारे पास अब बच्चों से संबंधित कई महत्वपूर्ण कानून हैं जिनमें बाल श्रम अधिनियम] किशोर न्याय अधिनियम] शिक्षा का अधिकार अधिनियम] पाक्सो कानून] बाल विवाह निषेध अधिनियम] अनैतिक व्यापार अधिनियम शामिल हैं।
इसके बावजूद हम आज तक देश में बच्चे की एक उम्र तय नहीं कर पाए हैं। अलग-अलग कानूनों के अनुसार यह उम्र 0-18 वर्ष के बीच है। हमने निजीकरण] उदारीकरण और वैश्वीकरण को ही विकास का बुनियादी आधार मान लिया हैं और इस अंधी दौड़ में अधिकार कहीं कोने में दुबके नजर आते हैं। जैसा हमारे घरों में होता है कि बच्चों की गिनती सबसे बाद में होती हैं वैसे ही विकास की इस पूरी प्रक्रिया में बच्चे पिछड़ जाते हैं। किसी ने कहा है कि स्त्री आखिरी उपनिवेश है लेकिन सवाल यह है कि यदि स्त्री आखिरी उपनिवेश है तो फिर बच्चे क्या हैं ?