INDIA: क़ानून के हकदारों को योजना का हितग्राही बनाने की कवायद (मनरेगा 5) 

मध्य प्रदेश में देरी से हुए भुगतान की कुल राशियाँ
जिले का नाम वर्ष

(राशि करोड़ रूपए में)

  2010-11 2011-12 2012-13 (जनवरी’13)
अलीराजपुर 27.65 23.66 13.68
बडवानी 88.44 51.51 31.92
खंडवा 45.01 43.44 27.58
खरगोन 71.52 68.59 31.31
शिवपुरी 35.63 32.21 18.66
डिंडोरी 49.91 52.93 41.63
बालाघाट 70.12 73.97 52.32
श्योपुर 25.78 19.38 11.34
सतना 41.04 29.94 23.47
मंडला 69.93 62.07 28.45
उमरिया 43.90 40.66 17.48
धार 98.62 101.52 43.88
इंदौर 11.18 18.20 11.83
ग्वालियर 11.30 14.74 8.4
होशंगाबाद 6.61 6.11 4.91
सागर 38.04 39.68 31.26
भोपाल 4.59 9.26 7.97
मध्यप्रदेश 652.76 881.36 489.13

मनरेगा क़ानून में रोज़गार के अधिकार को न्याय की परिभाषा के तहत स्पष्ट व्याख्या करते

हुए यह उल्लेख किया गया है कि यदि मजदूरों को उनके काम का पारिश्रमिक सही समय पर नही मिला तो यह राज्य की असफलता मानी जायेगी. जरा इस प्रावधान की जमीनी हकीकत की बात करते हैं. लालपुर में वर्ष 2010 से जनवरी 2012 तक की अवधि में मजदूरों को 8 से 14 माह देरी से भुगतान हुआ है. यदि विकासखंड के स्तर पर बात की जाए तो यहाँ 65 प्रतिशत मजदूरी का भुगतान आधिकारिक रूप से देरी से हो रहा है. 36.37 लाख रूपए के भुगतान में 30 से 60 दिन की, 21.41 लाख रूपए के भुगतान में 60 से 90 दिन की देरी और 12.22 लाख रूपए के भुगतान में 90 दिन से ज्यादा की देरी है. मंडला जिले के स्तर पर 28.45 करोड़ रूपए का भुगतान विलंबित है. मध्यप्रदेश में 295 करोड़ रूपए की मजदूरी के भुगतान में 90 दिन से ज्यादा की देरी चल रही है जबकि कुल 881 करोड़ रूपए का मजदूरी भुगतान भारत की संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून के मुताबिक 15 दिन की निर्धारित अवधि में नही हुआ. मध्यप्रदेश में मनरेगा के तहत मजदूरी के भुगतान में देरी की स्थिति लगातार बिगडती गयी है. वर्ष 2010-11 में 652.76 करोड़ की मजदूरी का देर से भुगतान हुआ. अगले साल यानी वर्ष 2011-12 में यह बढ़ कर 886.36 करोड़ रूपए हो गया. वर्ष 2012-13 में जनवरी तक 489.13 करोड़ का विलम्ब दर्ज हो चुका था. राज्य के आदिवासी और मानव विकास के नज़रिए से पिछडे जिलों बडवानी, खरगोन, बालाघाट, डिंडोरी, मंडला, धार में 55 से 65 प्रतिशत मजदूरों को बेहद विलम्ब से भुगतान हुआ. इंदौर, भोपाल, ग्वालियर में अपेक्षकृत स्थिति बेहतर है. इसका मतलब यह है कि बडे और शहरी प्रभुत्व वाले जिलों में मजदूरी के भुगतान को ज्यादा बेहतर प्राथमिकता दी गयी है. साफ़ देखें तो हमें राज्य सरकार के स्तर भी वंचित जिलों के साथ भेदभाव होता नज़र आता है.

अब अगर कानून के नज़रिए से बात करें तो एक दुखद पहलु नज़र आता है. क़ानून कहता है कि लोग काम तो कर लेंगे पर उन्हे यदि समय पर मजदूरी का भुगतान ना किया जाए तब उनके क्या अधिकार होंगे; उन्हे मजदूरी मुआवजा अधिनियम 1936 के तहत देरी से मजदूरी के भुगतान के लिये मुआवजा दिया जाएगा. इस क़ानून के क्रियान्वयन के लिये जिम्मेदार विभाग श्रम विभाग है. आठ साल गुज़र जाने के बाद भी न तो अधिकारों को इस प्रावधान के बारे में प्रशिक्षण दिया गया है, न ही नियम व्यवस्था बनायी गयी है कि लोगों को उनका हक़ कैसे मिलेगा! हम कानून की इस खिलाफत के लिये केवल राज्य सरकार को ही जिम्मेदार नही मान सकते हैं. अगर आप भारत सरकार की मनरेगा की अधिकृत वेबसाईट और सूचना प्रबंधन प्रणाली का सन्दर्भ लेते हैं, तो पता चलता है कि वहां पर इस प्रावधान के बारे में जानकारी लेने और जानकारी देने की कोई व्यवस्था है ही नही; इसका मतलब यह भी है कि सरकारें अभी भी मजदूरी के हक़ के प्रति व्यवस्था को जवाबदेय नही बनाना चाहती हैं.

*This is the fifth article in an article series confronting with the issues plaguing the implementation of MNREGA in India.

About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: 00 91 9977704847

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-067-2013-HI
Countries : India,
Issues : Judicial system, Right to food,