महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना केवल एक आर्थिक गतिविधि नहीं है. इसका मकसद केवल मजदूरों को मजदूरी देना ही नहीं है. अगर ईमानदारी से देखा जाए तो यही एक ऐसा कार्यक्रम है जो समाज को यह कानूनी अधिकार देता है कि वह पंचायत और सरकार से सामाजिक अंकेक्षण के जरिये सवाल पूछ सके. मनरेगा ही एक ऐसी कानूनी योजना है जो पंचायतों को यह अधिकार देती है कि वे अपने गांव के विकास के बारे में सोचें और अपनी मर्ज़ी की योजना बनाएँ. कोई विभाग या सरकार उनके काम में दखल नहीं दे सकती है. यही एक ऐसा क़ानून है जिसमे समाज में सदियों से और सरकार में छह दशकों के चली आ रही उस शोषण आधारित परंपरा को तोडने की व्यवस्था की जिसमे मजदूरों से श्रम तो करवाया जाता था परन्तु उसका पारिश्रमिक नहीं दिया जाता था. यह शोषण केवल समाज में ही नहीं हुआ बल्कि सरकार ने भी सुनिश्चित ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना और समूर्ण ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना में वर्ष १९९० से २००५ के बीच करोड़ों मजदूरों के श्रम को लूटा. मजदूर कुछ न कर पाए क्योंकि ये ऐसी रोज़गार योजनाएं थीं, जिनके पीछे ऐसा कोई कानूनी आधार नहीं था जो मजदूरों को श्रम के बदले न्यायोचित पारिश्रमिक का “हक” मिलना सुनिश्चित करता. मनरेगा ने श्रम के सामाजिक और राजकीय शोषण के उस चक्र को तोडा. हम जानते हैं कि देश की वृद्धि दर के बारे में सोचने वाले आर्थिक नीतिकार और बड़े उद्योगपतियों के समर्थक हमेशा से यह वकालत करते रहे हैं कि इस योजना में सरकार को अपना खर्चा कम करना चाहिए. वे चाहते हैं कि मजदूर कम मजदूरी दर पर निजी क्षेत्र के लिए उपलब्ध रहें. जब मनरेगा का काम होता है तो शहरों में चल रहे अधौसंरच्नात्मक विकास यानी इमारतों-सड़कों-हवाई मार्गों के निर्माण के लिए मजदूरों की संख्या कम होती है या वे ज्यादा मजदूरी की मांग करते हैं. सच कहा जाए तो मजदूरों को भी विकल्प मिलने की सम्भावना बनने लगी. वास्तव में मनरेगा का मौजूदा आर्थिक नीतियों के साथ सीधा टकराव होता है. चिदंबरम और मोंटेक जी चाहते हैं लोग गांव से निकलें और शहरों की और पलायन करें. जहाँ वे पूंजीवाद की सेवा में अपना जीवन अर्पण कर दें. मनरेगा गांव के श्रमिक समाज और छोटे-वंचित किसानों को यह अवसर देने लगा कि उन्हे बदहाली में गांव से पलायन न करना पड़े. इससे भारत की आर्थिक नीतिकारों पर दो तरह से आघात हुआ – इस योजना पर हर साल सरकार को लगभग ४० हज़ार करोड़ रूपए का आवंटन करना पड़ा, जिससे निजी क्षेत्र को तकलीफ हुई कि मजदूरों के लिए इतना धन सरकार क्यों खर्च कर रही है. दूसरा यह कि मजदूर सीधा खड़े होने लगा और उसके पारिश्रमिक में बढौतरी होना शुरू हुई. जो बड़े किसान और उद्योगपति करना नहीं चाहते थे. अब एक नया तर्क गढा गया है. एक बड़े अर्थशात्री में कहा कि मनरेगा के कारण मजदूरों को पैसा मिला है जिससे उनकी क्रय क्षमता बढ़ी है. यह कारण है कि भारत में महगाई बढ़ रही है. यानी मनरेगा और मजदूर देश की आर्थिक संकट का कारण हैं. यह मानसिकता साबित करती है कि एक बड़ा प्रभावशाली तबका, जो नीतियों के प्रभावित करता है, यह नहीं चाहता है कि मनरेगा जैसी योजना चले. इससे उनकी लागत में बढौतरी होती है. वे यह भूल रहे हैं कि आर्थिक संकट और मंदी का बड़ा कारण यह है कि हम उत्पादन तो कर रहे हैं, पर उसका उपभोग करने लायक सक्षम समाज नहीं बनाना चाहते हैं. आप देखिये कि ऊँचे पदों, जिन पर समाज के ऊँचे तबके ज्यादा स्थान पाते हैं, के वेतन में २००१ से २०१२ के बीच ३७९ से ४८९ प्रतिशत की वृद्धि हुई, पर मजदूरों की बात जब भी की गयी तब उसके लिए न्यूनतम मजदूरी की ही बात कही गयी. यह दर आठ प्रतिशत की दर से ही बढ़ी. केवल मजदूर की वह वर्ग है जिसके लिए सरकार ने यह तय किया है कि उसे तय टास्क के आधार पर ही न्यूनतम मजदूरी मिलेगी. भूख और कुपोषण के जाल में फंसे मजदूर को लक्ष्य दिया गया कि १०० घनफीट का काम करेगा तभी १३२ रूपए मिलेंगे नहीं तो इससे कम मिलेगा. यह लक्ष्य नियमानुसार उनके लिए होना चाहिए जो स्वस्थ्य हैं. जहाँ हर मजदूर खून के कमी और कुपोषण का शिकार हो, वहाँ इस तरह का नियमन एक अमानवीय अन्याय से कम नहीं है. महात्मा गांधी ने तो कहा था कि किसान और मजदूर ही शांतिपूर्ण लोकतंत्र का आधार हैं, पर २०१३ के सरकार मानती है कि वे बोझ हैं. मनरेगा का विश्लेषण करने वाले विशेषज्ञ अक्सर यह भूल जाते हैं कि समाज को ताकतवर बनाने के लिए क़ानून हक चाहिए ही. राज्य और व्यवस्था की जवाबदेहिता को सुनिश्चित करने के लिए भी समाज को कानूनी संरक्षण देना जरूरी है. हमारी सामाजिक गरीबी को बरकारार रखते हुए मौजूदा सरकार आर्थिक गरीबी का श्रृंगार करते रहना चाहती है. जनदबाव में मजदूरों को रोज़गार का कानूनी हक मिला, इस तथ्य की उपेक्षा की गयी कि मनरेगा और खेती (बदहाल होने के बावजूद) कारण हम ३ साल की वैश्विक मंदी का सामना कर पाए और हमारी व्यवस्था जन असंतोष का शिकार नहीं हुई. केवल मजदूर और किसान ने ही सरकार से मंदी के नाम पर भीख नहीं मांगी, बहरहाल बड़े बड़े उद्योग कटोरा लेकर रियायत के नाम पर सरकार के सामने खड़े नज़र आये. यह भीख अब उनका हक बन गयी है. हर साल ६ लाख करोड़ रूपए की रियायत उन्हे मिल रही है जो हमारी अर्थ व्यवस्था की जड़ों को खोखला कर रहे हैं. इस राशि का मतलब समझते हैं – इसका मतलब है कि यदि गांव को दिया जाए तो भारत के हर गांव को हर साल एक करोड़ रूपए मिलेंगे. नीति यह है कि गांव में संसाधन मत डालो, ताकि गांव खाली हों. यही कारण है कि मनरेगा को कमज़ोर किया गया. इस रोज़गार गारंटी क़ानून में गारंटी सुनिश्चित करने वाले दो प्रावधान हैं – मजदूरी करने के एक सप्ताह के भीतर मजदूरी का भुगतान होगा, यदि नहीं किया तो सरकार उसका मुआवजा देगी. दूसरा – काम न मिलने पर बेरोज़गारी भत्ता मिलना. इन दोनों ही प्रावधानों को केंद्र सरकार, राज्य सरकार और जिला प्रशासन ने मिल कर तोड़ दिया है. यानी क़ानून होने के बावजूद मजदूरी के भुगतान का हक लोगों को नहीं मिल पा रहा है. यही हाल बेरोजगारी के भत्ते का भी है. क़ानून बिना सोचे समझे नहो टूटते, क़ानून बहुत सोच समझ कर तोडे जाते हैं. मनरेगा को इसलिए तोडा जाना चाहिए ताकि न तो लोग सामाजिक अंकेक्षण कर पायें, न सरकार से जवाब तलब करके निगरानी कर पायें, न अपनी बदहाली को दूर कर पायें…कुल मिला कर श्रम और वर्ग पर आधारित शोषण की व्यवस्था बनी रहे.
*This is the sixth, and the last, article in an article series confronting with the issues plaguing the implementation of MNREGA in India.
About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: 00 91 9977704847