मैं इस आलेख में विश्लेषण को कोई निष्कर्ष पर नहीं पंहुचा पाऊंगा. शायद मैं इस सवाल को लेकर दुविधा में हूँ कि खेती के सन्दर्भ में उपलब्ध किये जा रहे आंकड़ों पर विश्वास करूँ या न करूँ. शायद आप लोग मेरी मदद कर सकते हैं. वर्ष 2012 में मध्यप्रदेश सरकार ने कृषि बजट (यानी कृषि और उससे जुड़े विभागों के बजट को जोड़ कर बजट प्रस्तुत करने की नयी परंपरा) तैयार करने की पहल की. इसी साल राष्ट्रीय किसान संघ (आरएसएस से संबद्ध किसान संगठन) ने 1 लाख किसानों के साथ भोपाल में धरना दिया. जनवरी 2013 में मध्यप्रदेश सरकार को भारत के राष्ट्रपति ने कृषि कर्मण पुरूस्कार से नवाज़ा. खेती का काम और खेती करने वाला यदि जिन्दा रह पाए और उसकी बेहतरी हो तो इससे बेहतर इस समाज के लिए कुछ हो ही नहीं सकता. यह बताया गया कि जिस समय देश में कृषि विकास की दर 2 प्रतिशत के आसपास मंडरा रही थी, तब मध्यप्रदेश में वर्ष 2011-12 में कृषि विकास दर 18.96 प्रतिशत रही. मध्यप्रदेश में दलहन के उत्पादन में 54 प्रतिशत, अनाज के उत्पादन में 43 प्रतिशत, कपास में 10 प्रतिशत और तिलहनों के उत्पादन में बहुत जबरदस्त 143 प्रतिशत की बढोतरी हुई है. हम केवल इतनी तक ही सीमित नहीं हैं. धनिया, मिर्ची, लहसुन, और फलों के उत्पादन में भी जबरदस्त वृद्धि हुई है.
वर्ष 2010-11 में खाद्यान्न उत्पादन 160 लाख टन था, जो अगले ही साल बढ़ कर 194.6 लाख टन हो गया. देश के दाल उत्पादन में मध्यप्रदेश का 22.54 प्रतिशत का योगदान है. 4 लाख हेक्टेयर जमीन पर फल-फूल-सब्जियों का उत्पादन होता है. देश का 37 प्रतिशत लहसुन उत्पादन और 54 प्रतिशत सोयाबीन मध्यप्रदेश में होता है. जब आंकड़े आते हैं तो मन की आशंकाएं दब सी जाती हैं. जनवरी 2013 में हमें लग रहा था कि सच में खेती-किसानी यहाँ बच जायेगी. अब और ताज़ा आंकड़े आ गए हैं. वर्ष 2012-13 में राज्य ने 2.31 टन के ज्यादा खाद्यान्न का उत्पादन किया. इस साल कृषि विकास की दर 13.33 प्रतिशत रही. एक बात और महत्वपूर्ण है कि मध्यप्रदेश ने एक बहुत महत्वपूर्ण लक्ष्य हाथ में लिया है – खेती को लाभ का धंधा बनाने का. इसके लिए पिछले साल (2012 में) 10.8 हज़ार करोड़ रूपए का क़र्ज़ दिया गया था और 2013 में 12 हज़ार करोड़ रूपए का क़र्ज़ किसानों को दिया जाएगा. जब हर साल 8 प्रतिशत की दर से कर्जे की राशि बढ़ रही है तब क्या कर्जे में दबे किसान को इस कृषि विकास का हिस्सेदार माना जा सकता है? आज की तारीख में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या की मामले को नज़रंदाज़ किया जा सकता है क्या? साल 2001 से 2012 के बीच यानी 12 वर्षों में मध्यप्रदेश में 16190 किसानों ने आत्महत्या की है!
बस इसी दौरान 10 जून 2013 को मध्यप्रदेश से सम्बंधित जनगणना आंकड़ों की अगली किश्त जारी हो गयी. इसमे काम करने लोगों, खेती में संलग्न लोगों के बारे में जानकारी दी गयी. वर्ष 2001 से 2011 के बीच मध्यप्रदेश की कुल जनसँख्या 6.038 करोड़ से बढ़कर 7.26 करोड़ हो गयी. इसका मतलब यह कि लगभग 1.22 करोड़ लोग इस राज्य में बढ़ गए. जब जनसँख्या बढ़ती है तो सीधा सा मतलब है कि लोगों के काम (आजीविका या रोज़गार) के अवसर भी बढ़ना चाहिए. जनगणना की भाषा में काम करने वालों को कार्यशील जनसँख्या कहा जाता है. वर्ष 2001 में 42.74 प्रतिशत जनसँख्या यानी 2.57 करोड़ लोगों के पास काम था, जो वर्ष 2011 में बढ़कर 3.15 करोड़ हो गया; यानी कुल जनसँख्या में से 43.47 प्रतिशत लोगों के पास कोई न कोई काम था. इसका एक मतलब यह भी है कि मध्यप्रदेश में 10 वर्षों में काम के 57.80 लाख अवसर बढ़े.
खेती के साथ-साथ ये दस साल घरेलू उद्योग में काम करने वालों के लिए भी संकट से ही भरे रहे हैं. मध्यप्रदेश में इस एक दशक में घरेलु उद्योग में काम करने वालों की संख्या 10.33 लाख से घट कर 9.59 लाख पर आ गयी है.
वर्ष 1991 से 2001 के बीच में मध्यप्रदेश में 449 गांव और 2001 से 2011 के बीच में 490 गांव खत्म हो गए. जिसे हम विकास कह रहे हैं वास्तव में उस विकास में शहर गांव को निगल रहे हैं. इन बीस सालों में यहाँ गांवों की संख्या 55842 से घट कर 54903 पर आ गयी है.
अब मैं अपनी बात को फिर से खेती और खेती से जुड़े लोगों पर लेकर आता हूँ. जनगणना 2011 के आकंडे जो चित्र दिखा रहे हैं वह चित्र जनवरी 2013 में दिखाए गए कृषि कर्मण पुरूस्कार के के दौरान दिखाए गए चित्र का दूसरा पक्ष दिखता है. वर्ष 2001 से 2011 के बीच मध्यप्रदेश में किसानों (जो खुद की जमीन पर या सरकार द्वारा दी गयी जमीन पर खेती करते हैं) की संख्या में 11.93 लाख किसानों की कमी आई है. इस दौरान मध्यप्रदेश में किसानों की संख्या 1.10 करोड़ से घट कर 98.44 लाख रह गयी है. सरकार की नीति रही है कि हमें खेती से लोगों को निकाल कर दूसरे कामों, उद्योग और धंधों में लगाना है क्योंकि खेती पर निर्भरता ज्यादा है और सकल घरेलु उत्पाद में इसका योगदान बहुत कम है. किसानों में इस कमी का मतलब शायद यह है कि इन किसानों ने तेज़ी से बढ़ती जमीन की कीमतों का फायदा उठाया होगा और लाखों-करोड़ों रूपए में अपनी जमीन बेंच दी होगी और अब आराम की जिंदगी सुरक्षा के साथ बिता रहे होंगे. अच्छा है, आत्महत्या तो नहीं करना पडेगी.
यह विश्लेषण काल्पनिक साबित हो जाता है जब हम जनगणना द्वारा प्रस्तुत खेतिहर मजदूरों के आंकड़ों को देखते हैं. वर्ष 2001 में इन मजदूरों की संख्या 74.00 लाख थी, जो 2011 में बढ़कर लगभग 1.22 करोड हो गयी. यानी दस सालों में मध्यप्रदेश में कृषि क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की संख्या में 47.91 लाख मजदूरों की बढ़ोतरी हो गयी. इसका मतलब यह है कि किसान अब खेत के मालिक से खेती का मजदूर हो गया है.
सरकार बहुत प्रतिबद्धता के साथ खेती से किसानों को निकालने की पुरजोर कोशिश करती रही है. क्या हम यह मान सकते हैं कि मध्यप्रदेश में खेती और उससे जुड़े काम में अब पहले की तुलना में कम लोग काम करते हैं! बिलकुल नहीं!
वर्ष 2001 में मध्यप्रदेश की कुल कार्यशील जनसँख्या में से 71.48 प्रतिशत (1.84 करोड़ लोग) खेती और खेतिहर मजदूरी के काम में लगे थे, जो 2011 में (35.98 लाख) बढ़ कर 82.89 प्रतिशत (2.20 करोड़) हो गए. इतना ही नहीं वर्ष 2001 की कुल कार्यशील जनसँख्या में से 59.86 प्रतिशत लोग खेती और सम्बंधित कामों पर निर्भर थे; यह संख्या दस सालों में बढ़ कर 69.79 प्रतिशत हो गयी. खेती पर ये जो निर्भरता बढ़ी है उसमे किसान नहीं, बल्कि मजदूर बढ़े हैं. जहाँ एक और किसानों की संख्या में 11.93 लाख की कमी आई है, वहीँ मजदूरों की संख्या में 47.91 लाख की बढ़ोतरी हुई है. अब यदि हम यह देखें कि क्या खेती पर निर्भर लोगों की संख्या आनुपातिक तौर पर कम हुई है? तो इसका जवाब भी है – नहीं! वर्ष 2001 में कुल जनसँख्या में से 12.26 प्रतिशत लोग ही खेतिहर मजदूरी करते थे, जिनकी संख्या बढ़कर वर्ष 2011 में 16.78 प्रतिशत हो गयी. 2001 से 2011 के बीच के दस सालों में कुल काम करने वाले लोगों की संख्या में 22.41 प्रतिशत की वृद्धि हुई है; परन्तु खेतिहर मजदूरों की संख्या में 64.74 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. यानी मध्यप्रदेश में केवल खेतिकर मजदूरी करने के अवसर ही पैदा हुए हैं. सरकार खुलेआम कहती है कि हमारे यहाँ सस्ते में खेती की जमीन उपलब्ध है, हम करों में भी रियायत देंगे. कम्पनियाँ आयें और प्राकृतिक संसाधनों पर हर संभव नियंत्रण करें. ऐसे ही प्रदेश का विकास संभव होगा. मध्यप्रदेश की नीति किसानी को लाभ का धंधा बनाने की है, पर जनगणना के आंकड़े यह सवाल पूछ रहे हैं कि हम किसके लिए खेती को लाभ का धंधा बना रहे हैं; कम से कम किसान के लिए तो नहीं!
About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: 00 91 9977704847