अगर आप यह सोच रहे हैं कि रूपए की गिरती कीमत और अर्थव्यवस्था के संकट से अपने को क्या लेनदा-देना, तो आप गलत सोच रहे हैं. इससे पेट्रोल-डीज़ल मंहगा होगा, आयात होने वाला बना या कच्चा माला मंहगा होगा, सरकार को अपने द्वारा लिए गए कर्जे पर ज्यादा ब्याज देना पड़ेगा और इन सबसे अपना विदेशी मुद्रा का भण्डार खाली होता जाएगा. इन सबका बोझ लोगों पर आएगा और सरकार बाज़ार के खिलाड़ियों को राहत पैकेज देगी. इस संकट से कोई तो है जो सबसे ज्यादा फायदा उठाता है; क्या हमें नहीं पता कि वह कौन है?
देश की अपनी मुद्रा यदि कमज़ोर हो जाए तो इसका मतलब यह है कि अपनी अर्थ व्यवस्था पर उस देश का अपना नियंत्रण कमज़ोर हो रहा है. उसकी निर्भरता बाहरी अर्थव्यवस्था और अनिश्चित बाज़ार पर बढ़ रही है. दुनिया में वैश्विक बाज़ार में व्यापार में अम्रेरिकी डालर का महत्व अमेरिका के दुनिया पर जमे प्रभाव का सूचक भी है. हमें आज के बाज़ार और डालर की राजनीति पर दो नज़रिए से चर्चा करने की जरूरत है. पहला तो यह कि आज भारतीय मुद्रा यानी रूपए की कीमत डालर के मुकाबले इतनी कम क्यों हुई?; और दूसरा क्या डालर की राजनीति हमें अपनी विकास की परिभाषा और प्राथमिकताओं के बारे में कुछ सोचने के लिए मजबूर नहीं करती है? मूलतः मैं यह मानता हूँ कि आर्थिक विकास और वृद्धि दर की परिभाषा एक तरह की सट्टेबाजी है. इस विकास में जो अस्तित्व में नहीं होता है, उसकी कीमत तय कर दी जाती है, कीमत बढ़ा दी जाती है और गिरा या कम कर दी जाती है. इसे सभ्य भाषा में वे शेयर बाज़ार और फ्यूचर ट्रेडिंग भी कहते हैं. जरा सोचिये, एक कंपनी स्टील बनाती है. उसके शेयर का भाव कल 100 रूपए था. आज 70 रूपए हो जाता है. एक दिन में क्या उसका उत्पादन इतना कम हो गया कि उसकी कीमत 30 फीसदी कम हो गयी? वास्तव में उसके उत्पादन या सेवा कीमत का पैमाना नहीं है. ये तो सट्टेबाज़ (आप ट्रेडर कह सकते हैं) तय करते हैं कि कंपनियों के कीमतों में क्या हेर-फेर हो. एक दिन में न तो देश में सेवा या वस्तु का उत्पादन बढ़ जाता है, न ख़त्म हो जाता है. पर अखबार की सुर्ख़ियों में एक शीर्षक होता है – निवेशकों के डेढ़ लाख करोड़ रूपए डूबे! यह किसी को पता नहीं होता कि ये डूब कर कहाँ गए? हम ऐसे बाज़ार और उसमे होने वाले आर्थिक व्यवहार से देश की स्थिति, सुरक्षा और संभावना का आंकलन करते हैं. मैं अर्थशास्त्री नहीं हूँ और अपने अर्थशास्त्रियों को देख कर कभी होना भी नहीं चाहूँगा. मैं बहुत कुछ नहीं जानता हूँ इसलिए मेरे सवाल बहुत साधारण और बुनियादी से सवाल है. वर्ष 1991 में हमने एक देश के रूप में तय किया था कि भारत को हमें आर्थिक महाशक्ति बनाना है. इसका मतलब यह था कि लोगों के पास पैसा हो, साधन हों, सम्पन्नता हो. इन 22 वर्षों में देश में लोगों के पास पैसा आया, ऐसा अर्थशास्त्री बताते हैं. पैसा आया तो लोगों ने कारें खरीदीं. कईयों ने एकाध नहीं चार-पांच कारें ले लीं. वे हवाई जहाज़ में सफ़र करने लगे. बाहर कितनी ही गर्मी हो, एयर कंडीशनर से उनके हरम ठंडे रहने लगे. जंगल काट कर वहां कारखाने लग गए. लोगों ने अपने घरों में खूब सारी लाइटें भी लगा लीं. हम भारतीय हैं और भारतीय लोग सोने से खूब प्यार करते हैं, तो उन्होने खूब सोना भी खरीदा. जब पैसा आया तो यह तो किया ही जाना चाहिए न! अब ऐसा करेंगे तो पेट्रोल और डीज़ल खूब चाहिए. यह हमारे यहाँ ज्यादा नहीं होता है और हम आयात करते हैं. आपके धनवान होने के बाद हमारा पेट्रोलियम आयात 4 गुना बढ़ गया. इस आयत के लिए हम जो भुगतान करते हैं, वह रूपए में नहीं डालर में होता है. पहले, जब डालर 25 रूपए का था तब हम एक बेरल तेल के लिए 60 डालर यानी 1500 रूपए देते थे, जब डालर 60 रूपए का हो गया तो हम एक बेरल तेल के लिए डालर उतना ही चुकाते हैं पर रूपए में 3600 रूपए चुकाते हैं. इसी दौर में तेल कीमत भी बढ़ गयी तो हम 6500 रूपए चुका रहे हैं. अब सरकार दुखी है कि पेट्रोलियम आयात पर हमें 1 लाख करोड़ रूपए सरकारी खजाने से तो खर्च करना ही पड़ रहे हैं, साथ में भारत सरकार के खजाने में रखा डालर भी कम हो रहा है.
वृद्धि दर 8 और 9 प्रतिशत हो गयी तो हमने सोना भी खूब खरीदा. एक साल में 200, 300, 400 टन सोना हमने खरीदा. अब सोना भी हम पैदा नहीं करते हैं. यह भी आयात किया जाता है. जब आयात होगा तो और डालर खर्च होगा. हो भी रहा है. अब सरकार दुखी है कि आयात बढ़ रहा है और अपना डालर जा रहा है. अब हम विदेशी फल जैसे कीवी खाते हैं, विदेशी परफ्यूम लगाते हैं, विदेशी शराब पीते हैं, कपडे भी विदेशी पहनते हैं, क्योंकि हमने 8 और 9 प्रतिशत की दर से आर्थिक विकास किया है. इसके लिए फिर आयात होता है और डालर जाता है. इस सब पर हम 2 लाख 2 हज़ार करोड़ रूपए के बराबर के डालर खर्च करते हैं. हमारा चालू खाता घाटा मार्च 2013 में 88 अरब डालर का था, जिसे सरकार 70 अरब डालर पर लाना चाहती है. 18 अरब डालर की इस बचत के लिए अब कहा जा रहा है कि “सुधार के बड़े कदम” उठाए जाएँ. ये बडे कदम क्या हैं? पहला – पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें बढ़ाना, विनिवेश (यानी सरकारी उपक्रमों में से सरकारी हिस्सेदारी) को बेंचना, खुदरा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए नियमों को और कमज़ोर करना, वेदांत सरीखी कंपनियों को जमीन और जंगल के अधिग्रहण में मदद करना यानी लोगों को बलपूर्वक तरीके से विस्थापित करना और एक बार फिर बड़ी कम्पनियों को सरकारी खजाने से राहत पैकेज देना. यादी रखिये की भारत के मौजूदा राजनीतिक माहौल में इनमे से कोई भी कदम उठाना राजनीतिक रूप से जोखिम भरा है इसलिए बाज़ार में मंहगाई और अनिश्चितता का माहौल बनाया जा रहा है ताकि सुधार के इन तथाकथित क़दमों की खिलाफत का माहौल न बने. आशंका है कि मौजूदा आर्थिक हालातों का फायदा यह सरकार जरूर उठाएगी. हम सब को पता है कि संसद में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक और भूमि अधिग्रहण का विधेयक अटके हुए हैं ये दोनों विधेयकों का क़ानून बनना देश के लिए कितना जरूरी है, यह बहस का मामला है, पर राजनीतिक खेल के लिए जरूरी है. आज जिस तरह का माहौल बना दिया गया है उससे यह लगता है कि इन विधेयकों को पारित होने से रोकने के लिए माहौल बनाया गया लगता है. खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, परमाणु उर्जा के लिए संयंत्र लगाने और भीमकाय कारपोरेटों को चूना पत्थर, कोयले, बाक्साईट और धातुओं के खनन को खुली छूट देने के लिए भी यह माहौल बनाया गया है. भारत में मंदी इसलिए आई क्योंकि विदेशी निवेशक अपना पैसा निकाल रहे हैं; क्या भारत के किसानों, लघु उद्द्योग और स्थानीय सेवा क्षेत्र का कोई महत्व नहीं रहा? हम खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हैं, हमारे यहाँ अब खूब डाक्टर हैं, हम यदि खेती क्षेत्र और लघु उद्योगों को सच्चा संरक्षण दे दें, तो डालर की कोई जरूरत नहीं पडेगी. संकट सरकार की नैतिकता और मानसिकता का है, जो गुलामी को विकास मानती है और स्वाबलंबन को पिछड़ापन. अब हमें खुद तय करना है कि कौन से संकट से कैसे निपटना है?
About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: 00 91 9977704847
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