बीते दिनों राज्य सभा के बाद लोक सभा द्वारा भी खाद्य सुरक्षा विधेयक का पारित कर दिया जाना एक शक्तिशाली देश होने के बावजूद भूख के घर के बतौर भी जाने जाने वाले भारत के करोड़ों गरीबों के लिए एक बड़ी राहत भरी खबर है. एशियन ह्यूमन राइट्स कमीशन भुखमरी के उन्मूलन की दिशा में अधूरी ही सही पर एक सशक्त कदम उठाने के लिए बधाई देते हुए उम्मीद करता है कि भारत सरकार इस विधेयक को लागू करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी.
सुखद है कि देर से ही सही, इस विधेयक ने सरकार और कारपोरेट जगत द्वारा हर बीमारी का इलाज होने के बरसों से गढ़े गए आर्थिक विकास के मिथक को ध्वस्त कर दिया है. कहना न होगा कि 67 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को अपने दायरे में लेने वाले खाद्य सुरक्षा विधेयक की जरुरत पड़ना ही गरीबी में भारी कमीलाने के सरकारी आंकड़ों की पोल खोल के रख देता है. साफ़ है कि अगर जनसँख्या के इतने बड़े हिस्से को लगभग भुखमरी से बचाने के लिए तुरंत सरकारी हस्तक्षेप की जरुरत हो तो योजना आयोग के गरीबी रेखा से नीचे जी रही आबादी को 2004-05 के 37 प्रतिशत से घटा कर 2011-12 में 22 प्रतिशत पर ले आने के दावे गलत ही नहीं बल्कि हास्यास्पद भी हैं.
इस विधेयक की जरुरत पड़ना ही साफ़ कर देता है कि गहराते कृषि संकट से उपजा ग्रामीण संकट अभी ख़त्म नहीं हुआ है बल्कि इसके ठीक विपरीत, अब यह संकट नगरीय इलाकों में भी फ़ैल रहा है. किसानों की आत्महत्या से लेकर दिशाहीन पलायन तक की कहानियाँ इस बात का सबूत हैं कि लगातार गहराता जा रहा यह संकट ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी गिरफ्त में ले रहा है. 129 देशों में सामान्य से कम वजन वाले बच्चों के मामले में अंतिम से दूसरे पायदान पर खड़ा होने जैसे सरकारी आंकड़े इस विभीषिका का लगातार संकेत देते रहे हैं. इनमे से भी 20 प्रतिशत बच्चों का व्यर्थ हो जाना (wasted) और अगले 48 प्रतिशत का ठहरी वृद्धि (stunted) का शिकार होना आगे कुछ और कहने की जगह ही नहीं छोड़ता.
यही वह सन्दर्भ है जिसमे कारपोरेट लॉबी के भारी विरोध के बावजूद इस विधेयक का पारित होना लगभग तय था. आखिरकार कोई भी सरकार, या विपक्षी दल, देश की दो तिहाई से ज्यादा आबादी के ऐसे घने संकट में होने के सच की अनदेखी ऐसे भी नहीं कर सकते फिर यह तो चुनाव वर्ष है. हाँ यह जरुर है कि पारित हुआ विधेयक सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज दोनों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता.
इस विधेयक की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसने अभी भी खाद्य सुरक्षा को सांविधानिक अधिकार का दर्जा न देकर सिर्फ एक ‘कानूनी’ अधिकार बना कर छोड़ दिया है जिसे आगे की कोई सरकार आसानी से वापस भी ले सकती है. खतरनाक रूप से भ्रष्ट और अकुशल सार्वजनिक वितरण प्रणाली (public distribution system) को ही इस विधेयक के लागू करने का मुख्य आधार बना देना इस विधेयक की दूसरी बड़ी कमजोरी है. खाद्य सुरक्षा को सार्वभौमिक अधिकार न बनाकर इसे दो तिहाई आबादी तक सीमित कर देने की दशा में असली जरुरतमंदों के छूट जाने, उन्हें छोड़ दिए जाने की शिकायतों से भरा सार्वजनिक वितरण प्रणाली तंत्र इस बार ऐसी कोई गलती नहीं करेगा यह उम्मीद कम ही है.
दुखद तो यह भी है कि एक सशक्त शिकायत निवारण व्यवस्था जो कम से कम भ्रष्टाचारजन्य दिक्कतों पर कुछ हद तक नियंत्रण रख सकती थी इस विधेयक से सिरे से गायब है. महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार क़ानून में सामाजिक पर्यवेक्षण (सोशल ऑडिट) जैसी शिकायत निवारण व्यवस्था की उपस्थिति के भ्रष्टाचार से लड़ने में शानदार भूमिका निभाने के अनुभवों के बावजूद खाद्य सुरक्षा विधेयक में ऐसी किसी भी व्यवस्था का न होना निराश ही नहीं करता बल्कि दुखी भी करता है. और फिर वह अधिकार सही सन्दर्भों में कोई अधिकार है भी नहीं जिसका उल्लंघन होने की दशा में प्रभावित व्यक्ति निवारण न पा सके. इसीलिए इस विधेयक में सुधार कर एक ऐसी शिकायत निवारण व्यवस्था लाये जाने की जरुरत है जो जरुरत पड़ने पर लापरवाही या कर्तव्यच्युति के जिम्मेदार अधिकारी को उनकी वैयक्तिक आधार पर सजा दे सके.
अंत में, इस विधेयक को कृषि और अन्य हकों से न जोड़ना इसकी क्षमता को बहुत गहरी चोट पंहुचाता है क्योंकि इस विधेयक का क्रियान्वयन खाद्यान्नों की उपज, उपलब्धता और वितरण के सवालों से सीधे सीधे जुड़ता है. इसीलिए लाजमी है कि इस विधेयक का क्रियान्वयन भूमि अधिकारों के साथसाथ श्रम अधिकारों में नीतिगत स्तर के बदलावों पर, उन्हें जनकेंद्रित बनाने पर टिका हुआ है. कहना न होगा कि भारत में खाद सुरक्षा लागू कर पाना कोई छोटी बात न होगी क्योकि ऐसा कोई भी कदम व्यवस्था में दीमक की तरह घुसे भ्रष्ट एवं स्वार्थी हितों को गहरी चोट पंहुचाएगा. इसीलिए इसके क्रियान्वयन के लिए गहरी राजनैतिक इच्छाशक्ति और ठोस कदमों की जरुरत होगी. हम आशा करते हैं कि सफलतापूर्वक ऐसा करके भारत गरीबी और भूख से लड़ रहे विश्व के तमाम देशों के लिए आदर्श खड़ा करेगा, उन्हें बता सकेगा कि भूख का उन्मूलन संभव है.
इसी दिशा में एशियन ह्यूमन राइट्स कमीशन एक सुविज्ञ जनमत तैयार करने की दिशा में लगातार सक्रिय रहे विकास संवाद, भोपाल के साथियों को धन्यवाद देते हुए उनका तैयार किया हुआ संचयन आपसे साझा करना चाहता है.
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राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून – 2013
थाली आधी भरी या आधी खाली
विकास संवाद
ई- 7/226, धनवंतरी काम्प्लेक्स के सामने, अरेरा कॉलोनी, शाहपुरा, भोपाल, मध्यप्रदेश, 462016
फोन – 0755-4252789, ई मेल – vikassamvad@gmail.com, वेबसाईट www.mediaforrights.org
साथी
विकास संवाद की ओर से शुभकामनायें |
संसद ने अंततः खाद्य सुरक्षा कानून पर मुहर लगा ही दी | दुर्भाग्य यह है कि खाद्य सुरक्षा कानून को लाने के लिए अध्यादेश लाना पड़ा, लेकिन राहत वाली बात यह है कि “भूख” जैसे संवेदनशील मसले पर संसद में घंटों सार्थक बहस चली | तथ्यों, आंकड़ों और सरोकारों के बीच सार्थक चर्चा चलने से इस कानून के कई पहलुओं पर स्पष्ट रूप से बात हो पाई |
खाद्य सुरक्षा विधेयक देश की 1.2 अरब आबादी के करीब एक तिहाई हिस्से को अत्यंत रियायती दर पर खाद्यान्न मुहैया कराने के उद्देश्य से लाया गया है। इससे करीब 80 करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा। विधेयक के तहत लाभान्वितों को तीन रुपये प्रति किलो की दर पर गेंहू और दो रुपये प्रति किलो की दर से चावल तथा एक रुपये प्रति किलो की दर से मोटा अनाज मुहैया कराने की योजना है।
ऐसा नहीं है कि यह कानून खाद्य सुरक्षा के सभी आयामों जैसे खाद्यान्न उत्पादन से लेकर भंडारण और वितरण की समग्रता में वकालत करता है, बल्कि इसमें अभी भी बहुत चीजें छूटी हैं| विकास संवाद ने हर बार यह कोशिश की है कि खाद्य सुरक्षा व इससे जुड़े तमाम मसलों पर साथियों के बीच व्यापक दृष्टिकोण के साथ-साथ उससे जुड़े प्रश्नों को सामने रख सके |
पिछली बार हमने नकद हस्तांतरण को लेकर इसी तरह का एक संकलन आपके बीच में रखा था, जिस पर आप सभी की सकारात्मक प्रतिक्रियाएं आई थीं |
इस बार हम खाद्य सुरक्षा कानून के सन्दर्भ में यह संकलन आप तक पहुंचा रहे हैं | इस कानून में क्या है और क्या नहीं | इसमें केंद्र और राज्य के बीच के क्या मसले हैं |किस राज्य में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे परिवारों की क्या स्थिति है | लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत किस राज्य में कितना राशन उठाया जा रहा है, और इस कानून के तहत क्या स्थिति है | इन सब बातों पर विस्तार से प्रकाश डालता यह संकलन ………|
हमें उम्मीद है कि यह संकलन कानून को समझने के लिहाज से मददगार होगा | हर बार की तरह आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का स्वागत है |
रोली शिवहरे/ सचिन जैन/ प्रशांत दुबे
विकास संवाद समूह की ओर से
थोड़े में जानें क्या है राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013
(जैसा कि यह लोकसभा में 26 अगस्त2013 को पारित हुआ)
- प्रस्तावनायें
यह कानून पूरे देश में 5 जुलाई 2013 से लागू माना जाएगा। (यह वही तारीख है, जिस दिन राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लागू हुआ था) |
- हकदारियां
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस)
• प्राथमिकता वाले परिवारों को प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज हर महीने।
• अन्त्योदय परिवार को महीने में 35 किलो राशन।
दोनों को पात्र परिवार मानते हुए 75 प्रतिशत ग्रामीण और 50 प्रतिशत शहरी जनसंख्या को कानून के दायरे में लाया गया है।
इन्हें पीडीएस से 3 रु किलो चावल, 2 रु किलो गेहूं और 1 रुपए किलो के हिसाब से बारीक अनाज मिलेगा।
बच्चों की हकदारियां
गर्भवती और धात्री माताओं की हकदारी
आंगनवाड़ी से एक बार मुफ्त भोजन (गर्भावस्था के दौरान और प्रसव के 6 माह बाद तक)। साथ में किश्तों में 6000 रुपए की मातृत्व सहायता।
नोट : (1) यहां भोजन का मतलब गर्म पका खाना या पका-पकाया खाना, जिसे परोसने से पहले गर्म किया जाए या घर ले जाने वाला राशन है – केंद्र सरकार की सिफारिशों के अनुसार। भोजन कानून की अनुसूची 2 के अनुसार पोषण मानकों के अनुसार होगा। (2) महिलाओं और बच्चों की हकदारियां केंद्र के दिशा-निर्देशों पर चलाई जा रहीं योजनाओं के तहत राज्य सरकार देगी।
- पात्र परिवारों की पहचान
पीडीएस के हकदार परिवारों की पहचान के लिए कानून में कोई मापदंड तय नहीं किए गए हैं। केंद्र सरकार पहले राज्यों में पीडीएस का कवरेज (ग्रामीण/शहरी आबादी का अनुपात)
निर्धारित करेगी। फिर पात्र परिवारों की गणना जनगणना के आंकड़ों के आधार पर होगी। पात्र परिवारों की पहचान का काम राज्यों र छोड़ा गया है, जो अंत्योदय योजना के मार्गनिर्देश और प्राथमिकता परिवारों के लिए राज्य सरकारों द्वारा ‘निर्दिष्ट’ दिशानिर्देशों के अनुरूप होगा। पात्र परिवारों की पहचान 365 दिन में करनी होगी। इन परिवारों की सूची को प्रमुखता के साथ सार्वजनिक भी करना होगा।
- खाद्य सुरक्षा आयोग
कानून में राज्यों के स्तर पर खाद्य सुरक्षा आयोग बनाने की बात है। इसका प्रमुख काम-
• खाद्य सुरक्षा कानून के अमल पर नजर रखना, राज्य सरकार और उसकी एजेंसियों को सलाह देना और हकदारियों के उल्लंघन की जांच करना।
• जिला स्तरीय शिकायत निवारण अधिकारी के आदेश के खिलाफ अपील की सुनवाई करना और वार्षिक रिपोर्ट बनाना।
- शिकायत निवारण और पारदर्शिता
• दो स्तरीय ढांचा। जिला स्तरीय शिकायत निवारण अधिकारी (डीजीआरओ) और राज्य खाद्य सुरक्षा आयोग।
• राज्यों को शिकायतों के आंतरिक निवारण के लिए भी एक प्रणाली बनानी होगी, जैसे कॉल सेंटर, हेल्प लाइन आदि।
पारदर्शिता के लिए –
ये तो होने ही चाहिए –
1. पीडीएस के सारे रिकार्ड को सार्वजनिक किया जाएगा।
2. पीडीएस और बाकी कल्याणकारी योजनाओं का समयबद्ध सोशल ऑडिट।
3. सभी स्तरों पर लेन-देन को दर्ज करने के लिए सूचना तकनीक का उपयोग।
4. कानून के तहत सभी योजनाओं पर नजर रखने के लिए सतर्कता समितियां।
जिला स्तरीय शिकायत निवारण अधिकारी (डीजीआरओ)
राज्य सरकार हर जिले में डीजीआरओ नियुक्त करेगी। ये शिकायतों को सुनकर सरकार के मापदंडों पर कार्रवाई करेंगे। यदि शिकायतकर्ता इससे संतुष्ट नहीं हो तो वह राज्य खाद्य सुरक्षा आयोग को शिकायत कर सकता है।
दंड और मुआवजा
राज्य खाद्य सुरक्षा आयोग को दंड देने का अधिकार होगा। डीजीआरओ का आदेश न मानने वाले अधिकारी पर 5000 रु तक जुर्माना। आयोग अपने किसी भी सदस्य को इसके लिए न्यायकर्ता बना सकता है।
अगर हितग्राही परिवार को उसकी हकदारी का अनाज नहीं मिले तो उसे राज्य सरकार से केंद्र द्वारा निर्धारित खाद्य सुरक्षा भत्ता मिलेगा।
- अन्य प्रावधान
पीडीएस में सुधार
अध्याय 5 : केंद्र व राज्य सरकारें पीडीएस में सुधार के लिए कदम उठाएंगी। जैसे –
• राशन की घर पहुंच सुविधा
• राशन वितरण के एक सिरे से दूसरे सिरे तक कम्प्यूटरीकरण
• पात्र हितग्राहियों की पहचान के लिए ‘आधार’ का उपयोग
• रिकार्ड रखने में पारदर्शिता
• राशन दुकानों के लाइसेंस देने में सार्वजिनक संस्थानों को प्राथमिकता
• राशन सामग्री में विविधता
• महिला या महिला समूहों के हाथ में राशन दुकान का प्रबंधन
• और कैश ट्रांसफर, फूड कूपन या लक्षित हितग्राहीमूलक अन्य योजनाओं को शुरू करना ताकि पात्र परिवारों को उनका हक मिले।
•
सरकार और स्थानीय प्रशासन के कर्त्तव्य
केंद्र सरकार का प्रमुख कर्त्तव्य राज्य को अनुसूची 1 में दी गई कीमत पर अनाज (या, नहीं दे सके, तो आर्थिक सहायता) देना है, ताकि पात्र परिवारों को अनाज का हक मिल सके। केंद्र सरकार को राज्यों की सलाह से नियम बनाने के व्यापक अधिकार होंगे।
राज्य सरकारों का प्रमुख काम केंद्र के दिशानिर्देश के अनुसार संबंधित योजनाओं को लागू करना है।
राज्य सरकारों को भी नियम बनाने के व्यापक अधिकार मिले हैं। वे अपने संसाधनों का इस्तेमाल कर कानून में हितग्राहियों के लिए निर्धारित हकदारियों और लाभ का दायरा बढ़ा भी सकते हैं। स्थानीय प्रशासन और पंचायती राज संस्थाएं अपने क्षेत्रों में कानून के समुचित अमल के लिए जिम्मेदार होंगी। अधिसूचनाओं के जरिए उन्हें अतिरिक्त जिम्मेदारियां भी दी जा सकती हैं।
- अनुसूचियां
कानून में चार अनुसूचियां हैं (इन्हें अधिसूचनाओं के जरिए संशोधित किया जा सकता है)।
• अनुसूची 1 में पीडीएस के लिए अनाज जारी करने की कीमत है।
• अनुसूची 2 में मध्यान्ह भोजन, टेक होम राशन और संबंधित हकदारियों के लिए ‘पोषण के मानक’ निर्धारित हैं।
• अनुसूची 3 में खाद्य सुरक्षा को आगे बढ़ाने के विभिन्न प्रावधान हैं।
• अनुसूची 4 में हर राज्य के लिए खाद्यान्नों का न्यूनतम कोटा है। खासकर उन मामलों में जहां राज्यों को इस कानून से नुकसान उठाना पड़ता हो। इसका मतलब है कि राज्यों को खाद्यान्नों का मौजूदा कोटा जारी रहेगा।
(यह संक्षेपि़का ज्यां द्रेज ने तैयार की है और इसका हिंदी अनुवाद विकास संवाद के सौमित्र राय ने किया|)
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साभार : जनसत्ता, दिल्ली : 28, Aug, 2013
खाद्य सुरक्षा की राह
(संपादकीय)
आबादी के एक हिस्से को रियायती दर पर अनाज मुहैया कराने की योजना अरसे से चलती रही है। लेकिन पहली बार खाद्य सुरक्षा को कानूनी जामा पहनाने की पहल हुई है। खाद्य सुरक्षा विधेयक की सबसे बड़ी खूबी यही है। लिहाजा यह मनरेगा जैसा ही कदम है। सस्ता अनाज पाने का दायरा भी इस विधेयक ने बढ़ा दिया है। पचहत्तर फीसद ग्रामीण और पचास फीसद शहरी और इस तरह देश की कुल दो तिहाई आबादी इस योजना के तहत आएगी। जाहिर है, यह यूपीए सरकार की एक महत्त्वाकांक्षी योजना है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इस विधेयक को कांग्रेस अगले आम चुनाव में बाजी पलटने वाले कदम के तौर पर देख रही है। पर क्या ऐसा हो पाएगा? रियायती अनाज की योजनाएं किसी न किसी रूप में राज्यों में पहले से चल रही हैं। नए कानून से उनका थोड़ा-बहुत विस्तार जरूर होगा, पर इसका श्रेय केंद्र के खाते में जाएगा या राज्य के, इस बारे में निश्चित रूप कुछ नहीं कहा जा सकता।
लोकसभा ने सोमवार को जिस विधेयक को मंजूरी दी, उसमें हर लाभार्थी परिवार को हर महीने पैंतीस किलो सस्ते अनाज देने का प्रावधान है। चावल तीन रुपए, गेहूं दो रुपए और मोटा अनाज एक रुपए प्रतिकिलो के हिसाब से मिलेगा। लेकिन दक्षिण के राज्यों में गरीब परिवारों को चावल इससे भी सस्ती दर पर देने की योजनाएं पहले से चल रही हैं। पंजाब में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत दाल भी मिलती है, वहीं छत्तीसगढ़ सरकार ने कुछ महीने पहले एक कानून बना कर राज्य की नब्बे फीसद आबादी को रियायती अनाज का हकदार बना दिया है। ऐसे में भोजन के अधिकार को चुनावी हथियार बनाने का दांव अकेले कांग्रेस के पास नहीं होगा। फिर, यह सवाल भी उठेगा ही कि विधेयक तब जाकर क्यों लाया गया जब आम चुनाव में सिर्फ नौ महीने रह गए थे, जबकि कांग्रेस ने 2009 में ही अपने घोषणापत्र में इसका वादा कर रखा था। दूसरी बार यूपीए सरकार बनने के बाद राष्ट्रपति के पहले संसदीय संबोधन में सौ दिनों के भीतर उठाए जाने वाले कदमों में खाद्य सुरक्षा विधेयक का भी जिक्र था। मजे की बात यह है कि खुद सरकार के भीतर इस मसले पर काफी समय तक एक राय नहीं थी। पर सोनिया गांधी विधेयक को तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए कटिबद्ध थीं। लोकसभा में सत्तापक्ष के प्रबंधन में भी इसका असर दिखा। सरकार के सभी संशोधनों पर सदन की मुहर लग गई, जबकि विपक्ष का एक भी संशोधन पारित नहीं हो सका। अलबत्ता कुछ खामियां गिनाने के बावजूद भाजपा ने विधेयक का समर्थन किया।
आठ साल बाद पहली बार सोनिया गांधी ने किसी संसदीय बहस में हिस्सा लिया और पहली बार हिंदी में बोलीं। पर खाद्य सुरक्षा कानून को क्रियान्वित करने के लिए वित्तीय प्रबंध कैसे होगा, इस सवाल का कोई साफ जवाब वे नहीं दे सकीं। उन्होंने कहा कि वित्तीय संसाधन नहीं हैं, तो जुटाने होंगे। इस कानून के चलते कोई सवा लाख करोड़ का खर्च आएगा। पर पचहत्तर हजार करोड़ रुपए हर साल सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत पहले से खर्च हो रहे हैं। इसलिए अतिरिक्त वित्तीय भार वैसा नहीं होगा जैसा हौवा खड़ा किया जा रहा है। दरअसल, सबसे बड़ी चुनौती कारगर अमल की है। पीडीएस में व्याप्त भ्रष्टाचार और सरकारी खरीद वाले अनाज के भंडारण की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। खाद्य सुरक्षा कानून बनाने की बात यूपीए सरकार कई साल से करती आ रही है, मगर न तो पीडीएस के कामकाज को दुरुस्त और पारदर्शी बनाने के कदम अभी तक उठाए गए हैं न भंडारण और प्रबंध की क्षमता सुधारी गई है। पीडीएस को विकेंद्रीकृत स्वरूप देने की जरूरत पहले से बढ़ गई है। लोकसभा की बहस में यह मुद्दा उठना चाहिए था, पर किसी ने नहीं उठाया।
–०–
साभार : दैनिक भास्कर, Sep 04, 2013
खाद्य सुरक्षा अब एक यथार्थ
(संपादकीय)
खाद्य सुरक्षा अध्यादेश अब कानून का रूप लेने के करीब है। संसद में अधिकांश राजनीतिक दलों ने गरीबों को न्यूनतम खाद्य सुरक्षा देने के मुद्दे पर आवश्यक गंभीरता एवं सहमति का परिचय दिया। इससे ऐसा कानून बन सका, जो पूरी दुनिया में अनोखा है। देश की 67 फीसदी आबादी में प्रति व्यक्ति हर महीने पांच किलो सस्ता अनाज देने की इस योजना में वैसे कई कमियां हैं और मनुष्य की कुल आवश्यकताओं को देखते हुए इसके प्रावधान अपर्याप्त हैं।
संसद में चर्चा के दौरान विपक्षी दलों ने उचित ही इसकी तरफ ध्यान खींचा, लेकिन इस पहल की अहमियत यह है कि इससे एक ऐसी शुरुआत हुई है, जिसमें भारतीय राज्य ने सबकी भोजन जैसी बुनियादी आवश्यकता को पूरा करने की वैधानिक जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली है।
इसी दृष्टि से यह नागरिकों के गरिमामय जीवन के संविधान प्रदत्त बुनियादी अधिकार को यथार्थ बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बना है। आर्थिक संकट के इस दौर में इससे राजकोष पर पडऩे वाले अतिरिक्त बोझ और अर्थव्यवस्था पर उसके खराब प्रभाव को लेकर जताई गई चिंताएं अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन अक्सर देखा जाता है कि गरीबों के हित में उठाए गए कदमों पर बाजार और वित्तीय क्षेत्र के विशेषज्ञ अनुपात से ज्यादा प्रतिकूल प्रतिक्रिया जता देते हैं।
खाद्य सुरक्षा कानून का मुद्दा भी अपवाद नहीं है, जबकि उद्योग क्षेत्र अगर व्यापक नजरिये से देखे तो इस कानून के लागू होने में उसे अपना भी फायदा नजर आ सकता है। रेटिंग एजेंसी क्राइसिल ने कुछ समय पहले अपने अध्ययन से बताया था कि सस्ता अनाज मिलने से गरीब घरों में सालाना 4,400 करोड़ रुपए की बचत होगी, जिसे वे बेहतर खाद्य, वस्त्र, चिकित्सा एवं उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च करेंगे।
इससे औद्योगिक कंपनियों को नया बाजार मिलेगा। स्पष्टत: खाद्य सुरक्षा पर खर्च होने वाली रकम भी अंतत: अर्थव्यवस्था में ही आएगी, जिससे सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर को सहारा मिल सकता है। दरअसल, जरूरत विकास पर समावेशी नजरिये की है। इस कानून के जरिये भारत ने इस दिशा में प्रगति की है। अगर कानून में कमियां हैं, तो जैसा कि खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) केवी थॉमस ने कहा, भविष्य में उन्हें दूर करने का रास्ता खुला हुआ है।
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राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा – विधेयक से क़ानून के बीच की राजनीति
सचिन कुमार जैन
26 अगस्त 2013 का दिन कुछ मायनों में महत्वपूर्ण लगता है. इस दिन लोकसभा में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पारित हो गया. अब नए रूप में क़ानून बनने के बाद यह देश की 67 प्रतिशत जनसँख्या को अनाज की सीमित सुरक्षा प्रदान करेगा. देश में रहने वाले लोगों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के मकसद से बनाने जा रहे इस क़ानून को सच्चा और प्रभावी बनाने के लिए 318 संशोधन प्रस्तुत किया गए थे | एक दिन में साढ़े नौ घंटे तक चली इस बहस का जरूर अध्ययन किया जाना चाहिए. हमें इससे पता चलता है कि खाद्य सुरक्षा के अन्तर्निहित पहलुओं को आर्थिक मजबूरियों का नाम देकर खारिज किया गया है. यह दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 22 साल तक अर्थव्यवस्था के कारपोरेटीकरण और संसाधनों की लूट की नीतियों ने बुनियादी रूप से देश का भला नहीं किया है और आज भी हमें भुखमरी से निपटने के लिए एक करुणामयी क़ानून बनाने की जरूरत है. हम सब जानते हैं कि इस क़ानून के लिए बहुत संसाधनों की जरूरत होगी; इस आसन्न संकट को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकारों के साथ मिल कर इस विधेयक को अंतिम रूप नहीं दिया गया, यह अब बहुत स्पष्ट है. अभी 16 राज्यों की सरकारें 16500 करोड़ रूपए इस योजना पर कर रही हैं, यदि केन्द्र-राज्य संयुक्त रूप से पहल करते तो संसाधनों का बेहतर तरीके से उपयोग किया जाना संभव था. इस ने क़ानून में राज्य सरकारें केंद्र सरकार की उपनिवेश होंगी, क्योंकि उन्हे केवल क्रियान्वयन का काम करना है, नीति और व्यवस्थागत निर्णय का अधिकार भारत सरकार के पास रहेगा. हम सब कुछ भूल गए हैं. खाद्य सुरक्षा अब भी एक कानूनी हक ही है; इसे संवैधानिक हक का दर्ज़ा नहीं है. मतलब यह कि इस हक के अस्तित्व पर राजनीतिक बेईमानी की तलवार हमेशा लटकती रहेगी. अब आज की स्थिति में हम नए सिरे से इस विधेयक और उसकी राजनीति को समझने की कोशिश करते हैं.
1. खाद्य सुरक्षा के मामले में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली वाली व्यवस्था यानी कुछ को लाभ मिले और कुछ इससे बाहर किये जाएँ, को खत्म करते हुए इसे सार्वभौमिक किया जाना. अब जबकि लोकसभा में विधेयक पारित हो गया है, सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि इस 67 प्रतिशत जनसँख्या का चयन कैसे किया जायेगा. वर्ष 1997 में भारत में पीडीएस में लक्षित वितरण की व्यवस्था लागू की गयी थी. जिसका मतलब था कि जो गरीब हैं उन्हे ही सस्ता राशन मिलेगा. संकट यह रहा कि सरकार 15 सालों में यही तय नहीं कर पायी की ये गरीब कौन हैं? योजना आयोग के प्रभावी दखल के कारण भारत सरकार ने गरीबी की बहुत अजीब, अमानवीय, अनैतिक और दुर्भाग्यपूर्ण परिभाषाएँ अपनायीं. इन परिभाषाओं को नीतियों में लागू किया गया पर कोई भी राजनीतिक दल और निरपेक्ष समझदार व्यक्ति स्वीकार नहीं कर पाया. खाद्य सुरक्षा क़ानून में पूरी जनसँख्या को अधिकार दिया जायेगा या 67 प्रतिशत इस पर बहुत बहस हुई. इतनी सी बात सरकार नहीं समझ पायी कि क़ानून का दायरा सब लोगों तक कर देने की बाद भी 30 प्रतिशत मध्यमवर्ग इस क़ानून के तहत 5 किलो अनाज लेने राशन की दुकान पर नहीं जाता. उसे तो ऊँची गुणवत्ता का गेंहूँ और चावल की दरकार होती है. इसका मतलब यह कि वास्तव में 70प्रतिशत जनसँख्या पर ही सरकार का व्यय होता. इसके दूसरी तरफ फायदा यह होता कि इस क़ानून के पात्र67 प्रतिशत लोगों की पहचान (जिन्हे खाद्य असुरक्षित माना जायेगा) के मानक और पहचान की प्रक्रिया तय करने में होने वाली विसंगतियों से बचा जा सकता था. सरकार ने इस संशोधन को नहीं माना.
2. यह बात महत्त्व की है कि सरकार ने एकीकृत बाल विकास परियोजना (अब आंगनवाड़ी का पोषण आहार कार्यक्रम भी इसके दायरे में है) के तहत खाने के लिए तैयार (रेडी टू ईट) पोषण आहार के प्रावधान को हटा दिया है. इस प्रावधान से बड़ी कंपनियों को पैकेटबंद खाना बेंचने का धंधा दिए जाने की व्यवस्था की जा रही थी. यह एक महत्त्व की बात छूट गयी है. सरकार ने केवल पोषण आहार को इस क़ानून में शामिल किया है, जबकि इस कार्यक्रम में ६ महत्वपूर्ण सेवाएं शामिल हैं, जिनका जो स्वास्थ्य-पोषण-शिक्षा के परस्पर संबंधों को स्थापित करने में अहम योगदान है. यदि उन्हे इसमे शामिल किया जाता को बच्चों के कुपोषण में बहुत कमी आ सकती थी.
3. लोकसभा ने जिस विधेयक को पारित किया है, उसका प्राक्कथन तो पोषण की सुरक्षा का वायदा करता है. इस मान से साफ़ नज़र आता है कि दालों और खाने के तेल का प्रावधान न करके इस वायदे को तोड़ दिया गया है. राष्ट्रीय पोषण संस्थान के अनुसार अपनी कुल जरूरत के पोषक तत्वों में से अधिकतम 40 प्रतिशत हिस्सा अनाज से मिलना चाहिए, शेष 60 प्रतिशत पोषक तत्व भोजन के अन्य स्रोतों (दालें, फल, सब्जियां, तेल, अंडा, दूध और पशु स्रोतों से प्राप्त सामग्री आदि) से मिलना चाहिए. इस वैज्ञानिक तथ्य को क़ानून से बेदखल किया जा रहा है. इस कानून में प्रोटीन और वसा (जिनकी कमी भारत में कुपोषण का सबसे अहम कारण है) की जरूरत को पूरा करने के लिए कोई प्रावधान नहीं हैं.
4. राजनीतिक नज़रिए के यह उतना नयापन दिखायेगा, इसमे थोड़ी आशंका है. रोज़गार गारंटी क़ानून का होना साफ़ नज़र आया था क्योंकि इसके पहले गांव में लोगों को सरकार की तरफ से रोज़गार मिलता ही नहीं था. काम मिल जाता था तो मजदूरी का भुगतान कभी नहीं होता था. इसके बएजूद भी उनके पास कोई ऐसा रास्ता नहीं था कि वे अपने लिए न्याय की लड़ाई लड़ सके. सूचना का अधिकार क़ानून भी साफ़ नज़र आता है, क्योंकि इसके पहले किसी को सवाल पूछने का हक था ही नहीं. वन अधिकार क़ानून भी महत्त्व दिखाता नज़र आता है क्योंकि हर पांच में से तीन आदिवासी जंगल के अतिक्रमणकारी घोषित होते रहे और संसाधनों पर से समुदाय के हक छीन लिए जाते रहे. सवाल यह है कि क्या यह क़ानून कुछ ऐसा नया हक दे रहा है जो नज़र भी आये. इस क़ानून में शामिल हर योजना पहले से चल रही है और कैसी भी चलें पर ये योजनाएं चलती हुई नज़र भी आती हैं. राशन की दुकान लगभग 40 सालों से चल रही है. आंगनवाड़ी और मध्यान्ह भोजन योजना भी चल रही है. राशन की दुकान से पहले भी गेहूं और चावल मिल रहा था, अब भी अनाज ही मिलेगा. बहरहाल मात्रा जरूर कम हो गयी है. इस यूपीए के भीतर इस क़ानून के वकालत करने वाले इसमे उन तत्वों को डालना लगभग भूल गए जिनसे यह गेम चेंजर कदम साबित होता.
5. यह बहुत आश्चर्यजनक बात है कि लोकसभा की बहस के दौरान यह भी साबित हुआ कि कांग्रेस में एक पार्टी के रूप में और यूपीए में एक गठबंधन के रूप में भीतरी लोकतंत्र नहीं बचा है. जिन मुद्दों को लोकसभा में बहस के दौरान वस्तुनिष्ठ तरीके से बहस होना चाहिए थी, उन पर भी पार्टी व्हिप का असर रहा.
6. सुषमा स्वराज ने कहा कि आप यह क्यों कह रहे हैं कि यदि किसी गर्भवती महिला को किसी अन्य योजना में लाभ मिलेगा तो उसे पांच किलो अनाज नहीं मिलेगा. उन्होंने स्त्री होने के नाते सरकार से लगभग याचना करते हुए इस प्रावधान हो हटाने की गुजारिश की, पर संशोधन नहीं माना गया. जवाबदेहिता के सवाल पर सांसद बी महताब ने कहा कि गडबडी करने वाले के लिए केवल 5000 रूपए के दंड का प्रावधान है, इसे बढ़ा कर 50000 रूपए किया जाए. सभी सांसद जवाबदेहिता का ढोल पीट रहे थे, पर बहुमत नौकरशाही को जवाबदेय बनाने के खिलाफ था. सुषमा स्वराज सहित कई सांसदों ने कहा कि यह क़ानून संघीय ढांचे पर आघात करता है. कौन पात्र होंगे, अनाज की कीमत क्या होगी, वितरण व्यवस्था क्या होगी समेत सब कुछ केन्द्र सरकार तय करेगी और राज्य सरकार उसका पालन करने के लिए बाध्य होगी; यह भाषा सम्मानजनक नहीं है. 359 में से 250 सांसद राज्य सरकारों के अधिकार सीमित रखने के पक्ष में थे.
7. सरकार खाद्य सुरक्षा के अधिकार का दावा कर रही थी. उसी क़ानून में एक प्रावधान यह है कि युद्ध, बाढ़, सूखा, चक्रवात समेत किसी भी प्राकृतिक आपदा के दौर में सरकार खाद्य सुरक्षा का अधिकार देने के लिए बाध्य नहीं होगी. इस सरकार को कोई यह नहीं समझा सका कि भूख का सबसे गहरा आघात तो आपदा के दौरान ही होता है, उस समय पर लोगों को इस क़ानून का संरक्षण नहीं मिलेगा, क्या नैतिक रूप से यह प्रावधान सही है? निराश्रितों और बेघरबारों को एक वक्त का खाना सामुदायिक रसोई से देने के प्रस्ताव को भी 344 में से 245 सांसदों ने खारिज किया. भठिंडा की सांसद हरसिमरत कौर बादल ने कहा कि पंजाब की जमीन अगले 20 सालों में रेगिस्तान हो जायेगी. इस खतरे को नज़रंदाज़ करके बन रहा यह क़ानून कितना मज़बूत है.
8. भारतीय लोकतंत्र में संसद का निर्णय महत्त्व रखता है. और लोकसभा ने इस क़ानून को पारित कर दिया है. इस विधेयक पर बहस के दौरान हुई बहस में उभर कर आये मुद्दों को अब भूमि अधिग्रहण विधेयक के साथ भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए. ये दोनों क़ानून अलग-अलग नज़रिए से नहीं देखे जा सकते हैं. संसद के ज्यादातर सदस्य यह मानते हैं कि इस क़ानून का क्रियान्वयन उत्पादन और उपलब्धता से सीधे जुड़ा हुआ है. ऐसे में मौजूदा कृषि संसाधनों, किसानों और औद्योगिक विकास की नीतियों की समीक्षा किये बिना इसका क्रियान्वयन संभव न होगा. 19 सांसदों ने जमीन, सिचाई, खेती के पक्ष को रखा, जिसका संज्ञान लिया जाना चाहिए. अर्थशास्त्रियों और भारत सरकार के मंत्रियों का एक वर्ग राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के खिलाफ केवल इसलिए नहीं है क्योंकि इस पर 1.30 लाख करोड़ रूपए खर्च होंगे; बल्कि वह कारपोरेट हितों पर पड़ने वाले इसके प्रभावों को लेकर घबराए हुए हैं. वे जानते हैं कि इस क़ानून के बाद जमीन अधिग्रहण, खेती की जमीन का उद्योगों या अधोसंरचना के विकास के नाम पर जमीन कर कब्ज़ा जमाने की संभावनाएं कम होती जायेंगी. हम जानते हैं कि भारत अभी 50 लाख टन दालों का आयात करता है. इसी तरह 100 लाख टन खाने के तेल का भी आयात होता है. इस काम में बड़े स्तर के बिचौलिए और व्यापारी अपना हित साधते हैं. यदि सरकार तेल-दाल का प्रावधान कर देती तो इन दोनों वस्तुओं की भी नियमन और पैने ढंग से होने लगता. यह भी एक कारण है कि इन दोनों वस्तुओं को बाहर रखा गया.
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साभार : दैनिक भास्कर : 4, Sept, 2013
भूखों के लिए अन्न योजना से कौन डरता है ?
मृणाल पाण्डे
महाभारतकार ने कहा है ‘सर्वारंभाः तंदुलप्रस्थमूलाः’ यानी हर नई शुरूआत का जन्म मुट्ठी भर चावल से होता है। भूख भारत की ऐसी दारुण सच्चाई रही है कि महाभारत में अकाल के दौरान वधिक रूप् में मांस तौलता धर्म विश्वामित्र को सलाह देता है कि कुत्ते का मांस खाकर भी अपनी जान की रक्षा करना धर्ममान्य है। धर्म भी तभी बचेगा, जब पहले धर्मपालक बचें और परवर्ती भी कह गए हैं कि भूखे पेट से धर्मपालन (भजन आदि) नहीं होता। फिर क्या वजह है कि गरीबों को सस्ते खाद्यान्न मुहैया कराने की योजना पर राजनीति के गलियारों में इस कदर अडंगेबाजी और मीडिया तथा उद्योग जगत में उसके फलों के प्रति इतनी निराशा का माहौल बनाया गया। होना तो यह था कि लोकतंत्र के 81 करोड़ बेहद गरीब लोगों तक सस्ता अनाज पहुंचाकर उनका तन-मन सशक्त बनाने की योजना पर सभी दल तुरंत सरकार के बजट में समुचित प्रावधान बनवाने और अन्न के भंडारण और वितरण की मौजूदा जमीनी मशीनरी की समीक्षा कर उसकी बेहतरी तय कराने को लेकर सार्थक बहस छेड़ते। बजाय इसके हुआ यह कि पैराकारों की नीयत ओर शेष देश (यानी मध्यवर्ग तथा निजी उद्योग जगत) पर गरीबों पर बेपनाह सब्सिडी लुटाने के संभावित दुष्प्रभावों पर संसद के भीतर बारह दिनों तक आंकड़ों और तर्कों का घटाटोप बनाकर देश में शक और निराशा का वातावरण और भी गहरा दिया गया।
गरीबों को खाद्यान्न सुरक्षा मिले, इस वाजिब मांग पर अमत्र्य सेन या जगदीश भगवती सीखे अर्थशास्त्रियों अथवा किसी भी राजनीतिक दल को आपत्ति नहीं, लेकिन चुनाव सिर पर हैं लिहाजा औपचारिक विधेयक पेश होने के साथ ही इससे सत्तारूढ़ दल को संभावित चुनावी फायदा सूंघकर मुद्दा क्षेत्रीय धार्मिक और जातिगत आधारों वाली राजनीति और अर्थशास्त्र जगत की भीतरी लड़ाइयों द्वारा हाईजैक कर इतना जटिल बना दिया गया कि लगने लगा सस्ता अन्न मिलना तय हुआ नहीं कि देश के अमीर भी भूख से मर जाएंगे। ठोस सच्चाई यह है कि 2011-12 के दौरान भी देश के 45 प्रतिशत गरीबों को राशन की दुकानों से सस्ता अनाज मिल ही रहा था। गरीबी मापने के पुराने (बहुविवादित) पैमानों को बदलकर जब लक्षित लाभार्थियों की पुरानी तादाद पुनः मापी गई तो गरीबों की संख्या 22 फीसदी बढ़कर 67 प्रतिषत पर आ गई। इन अतिरिक्त 22 फीसदी लाभार्थियों को सस्ता अनाज देने की सरकारी सब्सिडी पर कुल अतिरिक्त खर्च 45000 करोड़ रूपयों का होगा, जो देश की सकल आय का महज 1.4 फीसदी के लगभग है। रही बात कमजोर भंडारण तथा वितरण व्यवस्था की, तो पहले उसमें सुधार हो जब अनाज बंटे, कहना ऐसा ही है जैसे कोई कहे जब तक गंगा प्रदूषित है, मैं गंगा स्नान नहीं करूंगा। निर्भया मामला दुःखद होते हुए भी साझा अनुभव का गवाह है कि महिलाओं, बच्चों की सुरक्षा की लचर व्यवस्था में ठोस सुधार का क्रम घटना की उस व्यापक रिपोर्टिंग से ही शुरू हो सका है, जिसके पीछे हर वर्ग के लोगों और मीडिया की व्यापक और मुखर भागीदारी थी। खाद्यान्न सुरक्षा योजना लागू हुई तो इस मसले पर भी लोकतांत्रितक भागीदारी का दबाव अन्न भंडारण तथा वितरण की सरकारी प्रणाली में क्रमिक और सार्थक सुधार करवा ले जाएगा, भले ही इसमें कुछ समय क्यों न लगे।
गुजरे दशकों में गरीबी रेखा के नीचे से लोगों की एक बड़ी तादाद ऊपर उठकर दिन-रात फैलते भारतीय मध्य वर्ग में शुमार हो गई है। साथ ही भविष्य में वैश्विक दबावों के चलते हर बढ़ती अर्थव्यवस्था भरपूर मानसिक या शारीरिक मेहनत करने वालों को ही बेहतर कमाई का अवसर देगी। इसलिए भी देश को गरीबी से बाहर लाने के लिए हर पेट में नियमित भोजन पहुंचाना हमारे संविधान के तहत न्याय का पहला तकाजा बनता है। यह शोचनीय है कि हमारे अनेक पढ़े-लिखों की राय में तंगी के बीच जब शेयर बाजार लगातार नीचे जा रहा है, विदेशी पूंजी भाग रही है और पेट्रो उत्पादों का दाम बढ़ रहा है, देश के करोड़ों गरीबों को सस्ता राशन मुहैया कराने का मतलब क्या है ? अरे विदेशी पूंजी पैर काटकर हमारे घर बैठने को आई ही कब थी ? उसको मुनाफा कमाना था, सो कमाकर वह निकल ली। उधार के बूते राष्ट्र निर्माण नहीं होता, एक समवेत आशावंत जनभागीदारी से होता है, जिससे भारत के दानभीरू अमीरों को अक्सर परहेज दिखता है।
उनका ही, स्वार्थ सर्वोपरि रखने वाली बहसों से तो बरसों से दबे पड़े कई अनकहे क्षेत्रीय स्वार्थ और जातीय या अकादमिक मनमुटाव ही जिलाए गए हैं। और ‘बेचारे हम मध्यवर्गीय मतदाता और हताश उद्योग जगत’ बनाम ‘सत्तापक्ष द्वारा तुष्टिकृत संदिग्ध गरीब’ की इन दो भ्रमण अलगाववादी श्रेणियों का गठन हो गया है, जिनके हितस्वार्थों के बीच परस्पर छत्तीस का आंकड़ा है। अमीरों के हितस्वार्थ पर केन्द्रित रपटें और सोशल मीडिया में अन्न योजना से जुड़े लतीफे और हा हा भारत दुर्दशा देखी न जाई, तर्ज की बहसें यही दिखा रही हैं कि भारत का 33 प्रतिशत खाया-पिया मतदाता उसके 67 प्रतिशत गरीबों का महज मौखिक हितैषी था। उसे सचमुच की चिंता होती तो परिवार की शादी-ब्याह में खाने की किस्मों का लगभग अश्लील विस्तार करने वालों के अपने घरों में नौकरानियों, ढाबे के मुंडुओं या कार से लेकर नारकीय नालियों की सफाई करने वालों को कम से कम पैदा देकर अधिकतम काम कराने की मौजूद प्रथाएं क्यों कायम रहतीं ?
गरीबों में पाखंड को सूंघने की एक अद्भुत ताकत होती है। 2004 में जब इंडिया शाइनिंग बताया जा रहा था, चुनावी गणनाकारों को झुठलाते हुए उसने सत्ता पलट दी और उस गठजोड़ को सत्ता में ले आई, जिसका मिजाज उसे अपेक्षाकृत गरीब परवर प्रतीत हुआ। जब खुद को गरीबों का इकलौता सरपरस्त मानने वाले वाम दलों ने उस गठजोड़ से चूल्हे अलग कर कहा कि संप्रग सरकार पूंजीवादी परस्त है। तो भी जनता ने जोड़-घटाना अपनी तरह से चालू रखा और विधानसभा चुनावों में वाम दशकों से कायम जादू इस बार बंगाल या केरल कहीं नहीं चला। मतदाता हमेशा अपनी अंतःप्रेरणा पर चलता है और वह अंतः प्रेरणा हमेशा उसके अपने हितस्वार्थों के गतिशास्त्र को उसी आदिम भावना से संचालित रखती है, जिसको लेकर सदियों पहले कह दिया गया था- ‘सर्वारंभा:तंदुलप्रस्थमूला:।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं |
साभार : अमर उजाला, 2 अगस्त 2013 (शुक्रवार)
व्यक्ति नहीं, परिवार अहम
रीतिका खेड़ा
यह दुर्भाग्य की ही बात है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक को अध्यादेश के जरिये लाना पड़ा। फिर भी यह एक सकारात्मक घटना है, क्योंकि इसमें लाखों गरीब परिवारों की भूख मिटाने की क्षमता है। चूंकि इस पर संसद की मुहर लगनी है, इसलिए इसके कुछ पहलुओं पर प्रकाश डालना जरूरी है, ताकि संसद में इस पर होने वाली चर्चा में लाभ हो।
प्रस्तावित कानून स्कूली बच्चों को मिड-डे मील, गर्भवती महिलाओं को मातृत्व लाभ एवं छह वर्ष तक के बच्चों को आंगनबाड़ी के जरिये पौष्टिक आहार की गारंटी देता है। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों की 75 फीसदी और शहरी क्षेत्रों की पचास फीसदी आबादी को पीडीएस से प्रति महीने प्रति व्यक्ति के हिसाब से पांच किलो अनाज दिया जाएगा। इस समय केंद्र के नियमों के मुताबिक, गरीबी रेखा से नीचे के प्रत्येक परिवार को 35 किलोग्राम अनाज प्रति महीने दिया जाता है। हालांकि कई राज्यों ने इसे घटाकर 25 या 20 किलो कर दिया है। प्रति व्यक्ति के आधार पर अनाज देने के पीछे मुख्य तर्क इसे न्यायपूर्ण बनाना है, ताकि बड़े परिवारों को उनका उचित हिस्सा मिले। यदि प्रति व्यक्ति मॉडल को लागू किया गया, तो सात से अधिक सदस्यों वाले परिवारों को फायदा होगा। नेशनल सैंपल सर्वे के 2009 -10 के आंकड़ों के मुताबिक, केवल दस फीसदी ग्रामीण परिवारों में ही सात से अधिक लोग हैं। एक या दो सदस्य वाले परिवार काफी हद तक ऐसे बहुत नाजुक और कमजोर वर्ग के होते हैं, जैसे कि एकल महिला या बूढ़े-बुजुर्ग। इन्हें ज्यादा देने में कोई अन्याय नहीं है। जिस एकल नारी को आज 25 किलो मिल रहा है, उन्हें कल पांच किलो ही मिलेगा। ऐसे में प्रति व्यक्ति मॉडल के मुकाबले मौजूदा प्रति परिवार वाला मॉडल ही संभवतः ज्यादातर परिवारों के लिए फायदेमंद होगा।
इसके अलावा कुछ लोग तर्क देते हैं कि प्रति व्यक्ति वाला मॉडल उन परिवारों की धोखाधड़ी को रोकेगा, जो अपना अधिकार बढ़ाने के लिए अलग परिवार दिखाते हैं। यह एक ऐसा खतरा है, जो प्रति व्यक्ति वाले मॉडल में ज्यादा हो सकता है। आखिरकार, कुल आबादी अच्छी तरह से परिभाषित है और परिवारों की गिनती के मुकाबले लोग उससे अच्छी तरह से वाकिफ हैं। इसलिए राज्यवार अनाजों के आवंटन के लिहाज से यही बेहतर है।
आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में प्रति व्यक्ति के हिसाब से अनाज देने से तीन तरह के नुकसान उभरकर सामने आए हैं। पहला, प्रति परिवार वाला मॉडल यह सुनिश्चित करता है कि लोग अपने अधिकार से वाकिफ हैं। स्पष्ट एवं एक समान अधिकार से यह सुनिश्चित होता है कि लोग ठगे नहीं जाते। प्रति व्यक्ति मॉडल में परिवारों के हिसाब से अधिकार में अंतर आएगा। लोग यह नहीं समझेंगे कि उनके पड़ोसी को उनसे ज्यादा अनाज क्यों मिलता है। सबसे बुरी बात है कि स्पष्टता के अभाव में पीडीएस दुकानदार द्वारा भ्रम फैलाकर लोगों का दोहन बढ़ जाएगा और परिवारों को कम अनाज दिया जाएगा
दूसरा नुकसान यह है कि प्रति व्यक्ति वाले मॉडल से उत्पीड़न के रास्ते खुलेंगे। जब कोई बच्चा जन्म लेगा, तो राशन कार्ड में उसका नाम जुड़वाने में परेशानी होगी, इसके लिए घूस भी मांगी जा सकती है। जिन राज्यों में प्रशासनिक व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त है, वहां भी ऐसी परेशानी हो सकती है, जैसा कि इन दोनों दक्षिणी राज्यों में देखा गया है।
तीसरी बात यह है कि प्रति व्यक्ति के हिसाब से अनाज देने से मुश्किलें पैदा हो सकती हैं, खासकर छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, ओडिशा, और कुछ हद तक राजस्थान जैसे राज्यों में, जहां अभी प्रति परिवार वाला मॉडल अच्छी तरह से चल रहा है। कोई भी परिवर्तन न सिर्फ परेशानी बढ़ाएगा, बल्कि इससे क्रियान्वयन में भी देरी होगी। कुछ राज्यों ने प्रति व्यक्ति मॉडल का विरोध किया है। इसके अलावा, प्रति व्यक्ति मॉडल के साथ एक जोखिम यह है कि लोग झूठे सदस्यों का नाम राशन कार्ड में दर्ज करवाएंगे। ऐसी धोखाधड़ी को रोकने के लिए पीडीएस को बॉयोमिट्रिक्स से जोड़ने की मांग बढ़ रही है। विशिष्ट पहचान पत्र के साथ नकद हस्तांतरण को जोड़ने की पायलट योजना की अब तक नकारात्मक समीक्षा ही आई है। महीनों बाद भी इसमें गरीब लोग शामिल नहीं हो पाए हैं। यदि पीडीएस को बॉयोमिट्रिक्स से जोड़ा जाता है, तो इसकी भी स्थिति वैसी ही होगी। राज्यों को प्रति व्यक्ति मॉडल अपनाने के लिए मजबूर किए बिना ही न्याय सुनिश्चित किया जा सकता है। वैकल्पिक रूप से केंद्र सरकार संभावित लाभार्थियों के आधार पर राज्यों को अनाज आवंटित कर दे और यह राज्यों के ऊपर छोड़ दे कि वे कौन-सा तरीका अपनाते हैं।
सामान्य तौर पर राज्यों के प्रति लचीला रुख अच्छा सिद्धांत है और प्रति व्यक्ति मॉडल पीडीएस के अत्यधिक केंद्रीकरण की चिंता को बढ़ाता है। इस के पर्याप्त सुबूत हैं कि हाल के वर्षों में विकेंद्रीकृत पहल ने पीडीएस को पुनर्जीवित करने में खासा योगदान दिया है। इस विधेयक में पीडीएस से संबंधित ज्यादातर सुधार राज्यों के अनुभव के आधार पर हुए हैं। जब तक संसद का अगला सत्र शुरू नहीं होता, विधेयक का भविष्य अनिश्चित है। सरकार के आधे-अधूरे प्रयास, विपक्ष एवं सहयोगी दलों के विरोध बहुत आश्वस्त नहीं करते। इस बीच लाखों लाभार्थी परिवार अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित हो रहे हैं। एक उम्मीद है कि जिन सांसदों ने खाद्य सब्सिडी का लाभ उठाया है, वे इन वंचित परिवारों के बारे में सोचेंगे।
(सुश्री रीतिका खेड़ा भोजन का अधिकार और रोज़गार गारंटी अभियान से जुड़ी रही हैं और फिलहाल आईआईटी, दिल्ली में पढ़ा रही हैं)
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खाद्य सुरक्षा कानून : आधी थाली भरी या आधी थाली खाली
प्रशांत कुमार दुबे
तमाम अटकलों को दरकिनार करते हुए अंततः खाद्य सुरक्षा बिल लोकसभा में पास हो ही गया | खाद्य सुरक्षा को कानूनी अधिकार बनाने की दिशा में एक कदम और आगे की ओर बढ़ा | विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने सरकार को इस बिल को लाने के लिए बधाई देते हुए कहा कि यह हमारी मजबूरी है कि हमें इस कमजोर, आधे-अधूरे बिल का समर्थन करना पड़ रहा है | सरकार ने हमारे सुझावों को तवज्जो ही नहीं दी है | ज्ञात हो कि इस महत्त्वपूर्ण बिल के सम्बन्ध में 318 प्रस्ताव आये और जिसमें से सरकार के भी 11 प्रस्ताव सम्मिलित थे | सरकार के सभी प्रस्तावों को छोड़कर बाकी सब प्रस्ताव एक-एक करके गिर गए | एक और तो विपक्ष यह कहने से बाज नहीं आया कि सरकार ने चुनावी दांव खेला है तो वहीँ सरकार ने कहा कि हमने तो केवल अपना चुनावी वायदा पूरा किया है | हमने तो भूखे लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाई |
यह कानून इस दौर में आया है जबकि दुनिया की 27 प्रतिशत कुपोषित जनता भारत में है | 42 करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट सोते हैं| 47 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं| 5 वर्ष तक की उम्र के 70 फीसदी बच्चे खून की कमी से ग्रसित हैं| इस विपरीत दौर में जहाँ 1972 में प्रति व्यक्ति अनाज उपभोग 15.3 किलोग्राम था, जो कि अब घटकर 12.2 किलोग्राम प्रतिमाह हो गई है| देश में 415 लाख टन अनाज सुरक्षित रखे जाने की क्षमता है जबकि 190 लाख टन अनाज पन्नियों के नीचे पड़ा है| अतः यह तो बहुत जरुरी था कि यह कानून आये और इसीलिये किसी भी राजनैतिक दल ने इस बिल के लिए औपचारिक रूप से इसका विरोध नहीं किया था| लेकिन सरकार को इस पर आ रही रुकावटों के चलते अध्यादेश लाना पडा था | हालाँकि इस बिल को लेकर अभी भी कई पेंच हैं, जिन पर कोई भी बात नहीं हुई है |
इस बिल की खूबी यह है कि इसमें राशन व्यवस्था का विस्तार तो हुआ है| इसमें सभी तबकों की गर्भवती महिलाओं को 6 माह तक प्रति माह 1000 रूपये के मातृत्व लाभ की बात कही गई है| इसमें से बच्चों के निवाले के सन्दर्भ में ठेकेदारों को भी दूर रखा गया है| गरमा पके भोजन पर बात की है | खाद्य सुरक्षा योजनाओं में अगले 3 साल तक नकद हस्तान्तरण पर भी रोक लगी है | राज्यों को इसके लिए आवश्यक प्रावधान के लिए अब 6 माह की अपेक्षा अब 1 साल का समय दिया है | पहले से ही बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्यों का कोटा नहीं काटा जाएगा | जिन मोटे अनाजों के रकबे में पिछले छह दशकों में पैंतालीस फीसद की कमी दर्ज की गई थी, उन मोटे अनाजों को भी इसमें शामिल किया गया है, जो कि एक बेहतर कदम है | इससे मोटे अनाजों को उगाने में किसान भी रूचि दिखाएँगे |
पर एसा नहीं कि इस बिल में सभी कुछ शामिल है | इसमें से सार्वभौमिकीकरण का मुद्दा गायब है, अभी भी यह शहरी क्षेत्र की 50 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्र की 75 फीसदी जनता को ही कवर करता है| इसके साथ-साथ यह भी तय नहीं है कि किसे इसमें शामिल किया गया है और किसे नहीं| सरकार को चाहिए था कि वह इसमें या तो सभी को शामिल करती नहीं तो यह स्पष्ट करती कि किन समूहों को इसमें से बाहर किया जा रहा है | यहाँ अभी तक दुविधा की स्थिति बनी हुई है | इसी सरकार के कार्यकाल में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने हंगामा रिपोर्ट जारी करते हुए कुपोषण को राष्ट्रीय शर्म बताया था | पर अफ़सोस कि इसी सरकार ने लोगों को कुपोषण से जूझने के लिए आवश्यक दालों और तेल का प्रावधान इसमें नहीं किया है| ज्ञात हो कि 318 प्रस्तावों में से सबसे ज्यादा इसी विषय पर प्रस्ताव आये थे | इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के प्रावधानों के अनुसार प्रति माह प्रति व्यक्ति 14 किलो की न्यूनतम जरुरत को किनारे करते हुए केवल 5 किलो का प्रावधान किया गया है | यह कानून केवल वितरण की बात करता है, यानी उत्पादन और भंडारण को लेकर विस्तृत बात इसमें नहीं है | इसके अलावा बेघर व्यक्तियों के भोजन के लिए भी कोई भी प्रावधान नहीं किया गया है|
भोजन का अधिकार अभियान की कविता श्रीवास्तव ने इस बिल का स्वागत करते हुए कहा कि हमें ख़ुशी है कि आज संसद ने रोटी के सवाल को महत्वपूर्ण समझा है| संसद ने महिलाओं की खाद्य सुरक्षा को केंद्र में रखकर बात की | संसद ने बच्चों की भूख और कुपोषण को भी तरजीह दी | कविता कहती हैं कि हमें लगा कि देश के आम आदमी की भूख अब संसद के लिए मायने रखने लगी है | उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से इस बिल में अभी बहुत ही खामियां हैं लेकिन सरकार एक कदम आगे तो आई है | उन्होंने कहा कि भोजन के अधिकार को कानूनी मान्यता देने के लिए ही 2001 से माननीय उच्चतम न्यायालय में रिट पिटीशन(196/2001) के जरिये मांग की थी, लेकिन सरकार ने इस कानून को बनाने में 12 साल लगा दिए | उन्होंने कहा कि दुःख इस बात का भी है कि छत्तीसगढ़ में एक सशक्त कानून बन जाने के बावजूद भी सरकार ने उससे सीख नहीं ली | छतीसगढ़ में आज राशन व्यवस्था का लीकेज 10 फीसदी से भी कम रह गया है जबकि दूसरी ओर देश भर में यह लीकेज 49 फीसदी तक है |
विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने सदन में कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून बनाकर एक बेहतर उदाहरण पेश किया है, लेकिन सरकार ने उससे कोई सीख नहीं ली !!! भाजपा ने बार-बार इस मॉडल की बात करके यह बताने की कोशिश की, कि भाजपा ने इस कानून के सन्दर्भ में अगुआई की है| भाजपा ने इस बिल के सार्वभौमिकीकरण के सम्बन्ध में प्रस्ताव भी दिया, जो कि खारिज हो गया | लेकिन इस बात का उसके पास कोई जवाब नहीं था कि यदि छत्तीसगढ़ का बिल इतना ही बेहतर है तो फिर भाजपा शासित अन्य राज्य सरकारों (गुजरात और मध्यप्रदेश) ने यह क्यों नहीं अपनाया !! इसके अलावा छत्तीसगढ़ ने भी अभी तक खाद्य सुरक्षा कानून का सार्वभौमिकीकरण क्यों नहीं किया ?
भोजन का अधिकार अभियान यह भी कहता है कि सरकार यह बात बार-बार प्रचारित कर रही है कि इसमें लगभग 1.25 लाख करोड़ की जरुरत होगी, जो कि एक बड़ी रकम है | जबकि सरकार वर्तमान में ही खाद्य सब्सिडी पर 90 करोड़ के आसपास खर्च कर रही है, इसलिए अतिरिक्त राशि का बिगुल नहीं बजाना नहीं चाहिए क्यूंकि केवल 35,000 करोड ही अतिरिक्त खर्च करने होंगे| जबकि यही सरकार बड़ी-बड़ी कंपनियों को हर साल करोड़ों रुपयों की छूट करों के रूप में दे रही है| तो फिर आम जनों के प्रति सरकार की संवैधानिक जवाबदेही पर इतनी हाय तौबा नहीं मचनी चाहिए|
मुलायम सिंह ने सदन में चर्चा के दौरान यह भी कहा कि सरकार को पहले राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात करनी थी, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया | लगभग सभी विपक्षी दलों ने यही कहा | यहाँ सवाल यह है कि जब यह बिल संसद की स्टेंडिंग कमेटी के पास था, और जिस कमेटी में लगभग हर बड़े दल का प्रतिनिधि था, तब इन दलों ने आम आदमी के प्रति अपनी प्रतिबध्दता क्यों नहीं प्रदर्शित की !! जबकि वहां पर पूरा मौक़ा था | राज्यों पर बोझ पढ़ना एक जरुरी विषय हो सकता है, और शायद आगे चलकर इस पर और स्पष्टता आएगी | एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि किसानों को आश्वासन दिया कि खाद्य सुरक्षा कानून लागू होने के बाद भी उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलना जारी रहेगा। मंडियों में जो भी अनाज आएगा, उसकी खरीद की जाएगी। वैसे तो यह विधेयक ज्यादा से ज्यादा वितरण की बात करता है, यह कहीं भी उत्पादन और भंडारण की बात नहीं करता है | इसके पीछे सूचना के अधिकार से मिली यह जानकारी महत्वपूर्ण है कि जबकि पिछले तीन सालों में 17,546 टन अनाज केवल सरकारी खाद्य भंडारों में ही सड़ गया है | हालांकि केन्द्रीय मंत्री थामस ने कहा कि भंडारण क्षमता 5.50 करोड़ टन से बढ़कर 7.5 करोड टन हो गई जो 2014-15 तक 8.5 करोड़ टन हो जाएगी।
यह कानून सरकार के लिए एक गेमचेंजर कानून हो सकता था लेकिन सरकार ने यह मौक़ा गंवा दिया है | यह बिल शहरी क्षेत्र की आधी और ग्रामीण क्षेत्र की एक चौथाई आबादी को कोई भी खाद्य सुरक्षा प्रदान नहीं करता है | बेघरों के सम्बन्ध में भी कोई भी प्रावधान न कर सरकार ने गांधी के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचने के सपने को भी चकनाचूर कर दिया है | आज राष्ट्रपति ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर कर दिए हैं | अब देखना यह होगा कि राज्यसभा में इस बिल का पहुँचना केवल रस्मअदायगी होगी या फिर वहां पर भी कोई बहस होगी | आज सरकार ने थाली भरी होने का सुनहरा ख्वाब तो दिखा दिया है लेकिन दरसल में थाली तो आधी ही भरी है, आधी थाली तो अभी भी खाली ही है | खुशी है तो बस इस बात की कि संसद ने आम आदमी की भूख को तवज्जो देकर उस पर सार्थक बहस की है … |
साभार : देशबन्धु : 31 Aug, 2013
खाद्य सुरक्षा कानून का प्रभाव
शीतला सिंह
लोकसभा में बहुप्रतीक्षित खाद्य सुरक्षा विधेयक ध्वनिमत से पारित हो गया है, जिसके तहत देश के 67 प्रतिशत लोगों को सस्ते दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराए जाने की व्यवस्था है। सरकार इसे पारित कराने का निश्चय कर चुकी थी और इसे अमल में लाने के लिए राष्ट्रपति का अध्यादेश भी जारी हो चुका था। चार कांग्रेस शासित रायों दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखण्ड और हिमांचल में इस पर अमल भी शुरू हो चुका था लेकिन कांग्रेस विरोधी इसे खाद्य सुरक्षा के बजाय वोट सुरक्षा विधेयक बता रहे थे जो लोकसभा चुनाव के ठीक मौके पर राजनैतिक लाभ उठाने के लिए लागू होने जा रहा है। कांग्रेस की अध्यक्ष और संप्रग की नेता सोनिया गांधी ने देश के लिए इसे महत्वपूर्ण और आवश्यक विधेयक बताया साथ ही सभी दलों से अपील भी की कि वे इसे पारित कराने में सहयोग करें जिससे गरीबों को अन्न पहुंचाने के संवैधानिक दायित्व की पूर्ति की जा सके।
जहां तक इस विधेयक के उद्देश्यों का सम्बन्ध है निश्चितरूप से इसे कमजोर और वंचित वर्गों के लिए हितकारी बताया जायेगा क्योंकि देश की 46 प्रतिशत आबादी जब गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहती हो तब उसके लिए उपाय करना सत्ता संभालने वाले यानी राय का दायित्व है। लेकिन यह विधेयक कई प्रश्न भी पैदा करता है जिसके समाधान की भी अपेक्षा होती है। पहला प्रश्न तो यह होता है कि गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाली जनता को क्या इस लायक बनाने का प्रयत्न नहीं होगा कि वह स्वत: स्वाभिमानपूर्वक अपने जीवन के निर्वाह के लिए मेहनत करके काम के अवसरों का लाभ उठाकर जीवन की ओर बढ़े या उसे इस स्थिति में रखने में ही भलाई समझी जायेगी और वैयक्तिक उपाय के रूप में काम के अवसरों के बजाय पेट भरने के लिए अनाज उपलब्ध कराया जायेगा।
यह कहा जा सकता है कि संविधान में काम के अवसर उपलब्ध कराना अनिवार्यता नहीं है लेकिन जब हम समता के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं तथा गरीबी और अमीरी के अन्तर को कम करने की बात करते हैं तो स्वत: यह सवाल भी उठता है कि राय यदि काम के अवसर न उपलब्ध करा सके तो वह इन वंचित वर्गों के लिए बेरोजगारी भत्ते की व्यवस्था तब तक के लिए करे जब तक वे अपने जीवन निर्वाह योग्य न बन जायें। क्योंकि गरीबों को जीवन की आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराने के लिए जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली की शुरुआत की गई थी वह तो भ्रष्टाचार का साधन ही सिध्द हुई और देश भर में इसके प्रति कोई अच्छी धारणा नहीं बन पाई। इस दिशा में यह दूसरा प्रयोग होगा जिसकी विशेषता यह बताई जा रही है कि उक्त अन्न को खरीदने के लिए जिस धन की आवश्यकता होगी सार्वजनिक बैंकों में उनके खाते खोलकर स्थानान्तरित कर दी जायेगी लेकिन यदि उन्हें 3 रुपये किलो चावल दो रुपये किलो गेहूं और एक रुपये किलो मोटा अनाज सीधे उपलब्ध भी कराया जाए तो आखिर यह किन माध्यमों से आयेगा। देश के 70 प्रतिशत लोग कृषि पर आधारित जीवन जीते हैं, वे अन्न के उत्पादन में भी लगे हैं, यह अनाज भी कृषि क्षेत्र से ही आयेगा लेकिन सरकारी खरीद के कारण क्या किसानों को प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य में कमी नहीं होगी। यह कृषि उत्पादन बढ़ाने में सहायक होगा या घटाने में?
केन्द्रीय बजट का एक लाख पच्चीस हजार करोड़ धन के खर्च होने वाली योजना के आरम्भ करने पर देश के विकास की गति पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा। इस समय जब यह विकास गति घोषित 9 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत पहुंच गई है तो सार्वजनिक उपमों पर होने वाला खर्च क्या कम नहीं होगा। इससे निर्माण की धारा कमजोर तो नहीं होगी, क्योंकि सरकार की आय का साधन करों, उपकरों आदि के माध्यम से आम जनता से ही तो आता है। बिक्रीकर, उत्पादन कर आदि का बोझ भी तो उपभोक्ता पर ही पड़ता है। आयकर, सेवाकर आदि के नाम से जो धन एकत्र होता है वह भी लाभ पर ही तो आधारित है और यह लाभ उत्पादन के अतिरिक्त मूल्य सिध्दान्त (सरप्लस वैल्यू) पर अवलम्बित है और यह भी उत्पादों के उपभोक्ता को ही वहन करना पड़ता है।
यह तो समझ में आता है कि कांग्रेस को मूल्यांकनों के अनुसार सबसे अधिक राजनीतिक लाभ पिछले लोकसभा चुनाव में मनरेगा और कर्ज माफी की घोषणा के प्रभावों के फलस्वरूप ही मिला था। इस बार चूंकि जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत पैसा सीधे नहीं बांटा जा सकता इसलिए उसका नया नामकरण खाद्य सुरक्षा कानून रखा गया है। लेकिन 64 वर्षों बाद इसकी याद तब आई जब देश में चलने वाली पंचवर्षीय योजनाओं से गरीब और गरीब और अमीर और अमीर होता गया। क्या इस योजना से यह प्रभाव घटेगा? यदि यह योजना राजनीतिक लाभ उठाने के लिए गरीबों को लुभाने के लिए है तो उसका प्रभाव बजट के लिए निर्धारित अन्य मदों पर स्वाभाविक रूप से पड़ेगा ही और गरीबों के लिए भोजन ही नहीं वस्त्र और मकान भी चाहिए लेकिन कोई भी सरकार यह नहीं कह सकती कि उसने इस लक्ष्यों को पूरा कर लिया है। इसलिए विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा इसके विरोध में चाहे जो कहा जाता रहा हो, लेकिन उन सभी को औचित्यों से परे नहीं माना जा सकता। इसलिए हमारी भावी समाज की परिकल्पना क्या है? क्या हम लोगों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा की ओर बढेंग़े, काम के अवसर खोजेंगे, बेरोजगारी घटायेंगे या उन्हें केवल सरकार का आश्रित बना देने मात्र से ही देश और समाज का कल्याण हो जायेगा और जिस पेट के लिए अन्न जुटाना यदि संवैधानिक दायित्व है तो समतावादी समाज की परिकल्पना निरर्थक नहीं। अभी तक जिस समाज में गरीबों की पहचान भी पूरी न हो पाई हो वहां 67 प्रतिशत लोगों को इस दायरे में रखना योजना की व्यापकता का परिचायक नहीं, बल्कि यही बताता है कि हम इसकी आड़ में कुछ और ही प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं।
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राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून की राजनीतिक अर्थव्यवस्था
सचिन कुमार जैन
भारत की संसद ने खाद्य सुरक्षा को एक अधिकार के रूप में मान्यता देकर एक ऐतिहासिक काम किया है. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून (2013) बनने का मतलब है सरकार का भुखमरी, कुपोषण और खाद्य असुरक्षा की स्थिति में जवाबदेय बन जाना. हालांकि हमें यह स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि अब भी खाद्य सुरक्षा या भुखमरी से मुक्ति भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है. इसलिए दूर की ही सही पर यह आशंका बनी रहेगी कि इस क़ानून को कभी भी ख़त्म भी किया जा सकता है. इस क़ानून पर चली बहसों में जो पक्ष उभरे उन्हे तीन वर्गों में रखा जा सकता है; एक वर्ग जो यह मानता है कि सरकार ने बहुत लम्बे समय के बाद एक अच्छा क़ानून बना दिया है और इसमे अनाजों के अधिकार के जो प्रावधान किये गए हैं उनसे भुखमरी मिट जायेगी; दूसरा वर्ग यह मानता है कि क़ानून बहुत जरूरी कदम था और है, परन्तु इसके किये गए प्रावधान भुखमरी और खाद्य असुरक्षा के मूल कारणों से लडने के मामले में कमज़ोर हैं. यानी किसानों, प्राकृतिक संसाधनों, उन आर्थिक नीतियों की आलोचनात्मक समीक्षा न होना, जो असमानता बढ़ा रही हैं, के बारे में ईमानदार पहल नहीं करता है. वे यह भी मानते हैं कि इस क़ानून में जिस खाद्य सुरक्षा की बात की गयी है, उसमे पोषण की सुरक्षा का कोई स्थान नहीं है. तीसरा वर्ग कहता है कि सरकार राजनीतिक लाभ के लिए 1.25 लाख करोड़ रूपए रियायत (सब्सिडी) के रूप में बर्बाद कर रही है. इस कदम से आर्थिक विकास के लिए जरूरी सुधार (जिनमे जनकल्याणकारी कार्यक्रमों पर सरकारी खर्चा और सब्सिडी कम करने के कदम उठाये जाते हैं) की प्रक्रिया को आघात पंहुचेगा. वे यह माने को तैयार नहीं हैं कि देश में मौजूदा कुपोषण और खाद्य असुरक्षा के कारण हो रहा आर्थिक विकास खोखला है. यह कहना भी गैरवाजिब है कि इस कानों पर होने वाले व्यय से कोई रचनात्मक लाभ नहीं होगा. लोगों को देने के लिए अनाज तो किसानों से ही खरीदा जाएगा न! इससे किसानों को साल भर में 80 हज़ार करोड़ रूपए का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा. हमें इस तरह की कई सच्चाईयों को समझना होगा.
इस बहस में उभरे कई सवाल बहुत महत्वपूर्ण भी हैं. सार्वजनिक वितरण प्रणाली में फैले हुए भ्रष्टाचार (अध्ययनों के आधार पर माना जाता है कि लगभग 35 प्रतिशत संसाधन भ्रष्टाचार की भेट चढ़ जाते हैं) को ख़त्म किये बिना इस क़ानून के तहत दिए गए अधिकार लोगों तक पहुँच पायेंगे, इस पर शंका बरकरार है; क्योंकि हाल ही में बने क़ानून में भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा देने के लिए बहुत कमज़ोर प्रावधान हैं. यह एक सच्चाई है, पर इस आधार पर यह तर्क देना कि सरकार को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून नहीं बनाना चाहिए था, बहुत हे गैर-वाजिब तर्क था. बेहतर होता यदि पीडीएस, मध्यान्ह भोजन और आंगनवाडी जैसे कार्यक्रमों में ढांचागत विकास, उनकी गुणवत्ता बढाने और उनकी सामुदायिक निगरानी के लिए स्पष्ट और ठोस प्रावधान किये जाने के लिए सरकार पर और दबाव बनाया जाता. लोकसभा और राज्यसभा में इस विधेयक पर हुई बहसों में इन सभी पहलुओं पर बात हुई, पर वह आखिर में औपचारिकता साबित हुई. विपक्ष ने भी सरकार को कमज़ोर क़ानून बनाने में समर्थन दिया. बार बार यह प्रचारित किया जा रहा है कि सरकार को इस क़ानून के क्रियान्वयन के लिए सवा लाख करोड़ रूपए का नया आवंटन करना पड़ेगा; पर यह झूठा प्रचार है. वास्तव में सरकार वैसे ही 97 हज़ार करोड़ रूपए इस पर खर्च कर रही है. उसे क़ानून के क्रियान्वयन के लिए नयी व्यवस्था बनाने (जैसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा आयोग, पीडीएस का कम्प्यूटरीकरण आदि) पर 25 हज़ार करोड़ रूपए का नया आवंटन करना होगा. यह खर्च बिना क़ानून बनाए भी होना ही था क्योंकि पीयुसीएल बनाम भारत सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार को पीडीएस में ढांचागत बदलाव की व्यवस्था बनाने के आदेश दिए हैं. इसके अलावा एकीकृत बाल विकास परियोजना यानी आंगनवाड़ी और स्कूल में मध्यान्ह भोजन योजना भी पहले से ही चल रही है. सभी महिलाओं के लिए मातृत्व हकों (छह माह के लिए 1000 रूपए प्रतिमाह की राशि का प्रावधान) की व्यवस्था एक नया और महत्वपूर्ण कदम है ताकि गर्भावस्था से लेकर प्रसव के बाद कुछ महीनों तक स्त्री को आराम, पोषण आहार और जरूरी स्वस्थ्य सेवाएँ मिल सकें. मातृ मृत्यु अनुपात, नवजात शिशु मृत्युदर और बाल मृत्यु दर को कम करने और बच्चों-महिलाओं में कुपोषण को रोकने के लिए यह अत्यंत जरूरी कदम माना जाना चाहिए. एक तरफ तेज़ी से हो रहा आर्थिक विकास और दूसरी तरफ कुपोषण का ऊँचे स्तर पर बने रहना; ये विरोधाभासी स्थिति है. कुछ लोग सम्पन्न होते जाएँ और हर दो में एक बच्चे का शारीरिक-मानसिक विकास अवरुद्ध रहे; यह स्थिति भारतीय लोकतंत्र के चारित्रिक पतन की सूचक मानी जा सकती है. सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह इस स्थिति के सन्दर्भ में अपना पक्ष स्पष्ट करे.
डेनमार्क, स्वीडन ऐसे देश हैं, जहाँ वे अपने सकल घरेलु उत्पाद के अनुपात में 40 से 50 प्रतिशत तक कर राजस्व इकठ्ठा करते हैं; भारत में यह स्तर 20 प्रतिशत से नीचे है. इतना ही नहीं सरकार आर्थिक विकास के नाम पर लगभग ६ लाख करोड़ रूपए (कुल करों के बराबर की राशि) की छूट दे देती है. इससे हमारे राजस्व आधे रह जाते हैं. बेहतर होगा कि इन दो बिन्दुओं पर ठोस काम करके वह अपना राजस्व बढाए. भ्रष्टाचार को ख़त्म करने और नव उदारवादी नीतियों के विलासितापूर्ण खर्चों (जैसे कामनवेल्थ खेलों पर 57 हज़ार करोड़ रूपए का व्यय) को रोकने की दिशा में हमारे उन नीतिनिर्माताओं और विद्वानों की आवाज़ नहीं निकलती है जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून बनाए जाने का खूब विरोध कर रहे थे; आखिर क्यों? यह प्रतिबद्धताओं में अंतर का प्रमाण है.
वास्तव में अन्तर नज़रियों और प्रतिबद्धताओं का ही है. नव-पूंजीवादी नजरिया मानता है कि इस क़ानून पर होने वाला खर्चा रियायत या सब्सिडी है, जो कभी वापस नहीं आएगी, जबकि हमें मानना यह चाहिए कि गरीबी, कुपोषण और वृद्धिबाधित बचपन की चुनौती से जूझ रहे भारत के लिए यह दीर्घावधि के विकास के लिए किया गया निवेश है. भुखमरी-कुपोषण से मुक्त होकर ही हम समतामूलक विकास कर सकते हैं. आक्सफोर्ड की अर्थशास्त्री सबीना अलकेर ने द हिन्दू में अपने लेख में लिखा कि भारत में दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में सबसे ज्यादा वृद्धिबाधित (स्टनटेड) यानी गहरे जड़ें जमा चुके कुपोषण से ग्रसित बच्चे हैं, फिर भी भारत सामजिक संरक्षण पर माध्यम आय वाले एशियाई देशों की तुलना में आधा ही खर्चा करता है; एशिया के उच्चा आय वाले देशों की तुलना में तो भारत का सामाजिक संरक्षण पर व्यय महज 20 फीसदी है. माध्यम आय वाले एशियाई देश सामाजिक संरक्षण पर अपने सकल घरेलु उत्पाद का 3.4 प्रतिशत व्यय करते हैं, जबकि भारत 1.7 प्रतिशत व्यय करता है. हम इस स्तर पर भी महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के व्यय के कारण पंहुचे हैं. उच्च माध्यम आय वाले एशियाई देश जीडीपी का औसतन 4 प्रतिशत सामाजिक संरक्षण पर व्यय करते हैं, जबकि उच्च आय वाले देश 10.2 प्रतिशत खर्च करते हैं. जापान 19.2 प्रतिशत, चीन 5.4 प्रतिशत; यहाँ तक की सिंगापुर भारत से दुगना यानी 3.5 प्रतिशत खर्च सामाजिक संरक्षण के लिए करता है.
एक तबका मानता है कि मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून जैसे क़दमों से लोग आलसी हो रहे हैं और श्रम की कमी होने के कारण खेती और उद्योग नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे; सच तो यह है कि इन क़दमों से असंगठित क्षेत्र में होने वाला शोषण कम होगा. यह क़ानून भुखमरी और कुपोषण की समस्या को जड़ों से नहीं हटाएगा पर इससे एक प्रक्रिया की शुरुआत जरूर होगी.
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Courtesy : THE ASIAN AGE : 01 Sep, 2013
Is India Ready to Implement the Food Security Bill?
Reetika Khera
The Public Distribution System (PDS), that will be implementing the food security scheme, has changed quite a bit in states such as Tamil Nadu, Andhra Pradesh, Himachal Pradesh, Chhattisgarh and Odisha, and to some extent in Rajasthan and Jharkhand. In Andhra Pradesh and Tamil Nadu, the PDS has always been good with no serious problems of leakage. The reforms that helped states such as Odisha and Chhattisgarh fix their PDS are mandatory.
Computerisation and de-privatisation of ration shops by allowing them to be run by gram panchayats, self-help groups and cooperatives are some of the reforms that are already being initiated in many states.
In the past, dealerships (for ration shops) were linked to political patronage. Come elections, and it was time to plough back the money to the netas who had handed out these dealerships in the first place.
In Tamil Nadu and Himachal Pradesh, ration shops are being run by the Registrar of Co-operatives Societies while in Odisha, gram panchayat secretaries are running ration shops. This provides for more accountability.
The PDS price for wheat is presently between `4 and `5. By contrast, the market price has shot up to over `15. If the differential between the market price and PDS price was small, people would not have made much fuss if grain was not available. But with prices having shot up, the people now feel “Joota khalenge, gaali khalenge (we will bear humiliation) but we will make sure that we take our entitlement from the ration shops.” There is much more pressure from below for the PDS to perform and stop leakage of grains.
In Tamil Nadu, the Management Information System ensures daily stock-taking of all products including grains, pulses and oil. This makes accounting much easier. Computerisation allows for greater transparency. Across most states, data is being computerised while in Uttar Pradesh, the BPL lists are being computerised at the ground level. We are already seeing the success on the ground. In Chhattisgarh, between 2004 and 2005, half the grain was leaking but by 2009-10, leakage was down to 10 per cent. In Odisha, leakage reduced by 30 per cent between 2004 and 2005, and 2009-10. In Tamil Nadu, leakage is down to 4 per cent. The FSB is an opportunity to reform PDS.
Three schemes – the ICDS, mid-day meals and providing maternity entitlements – are presently under the ambit of the PDS.
The expansion of the PDS will cost an additional `30,000 crore which is affordable. The government is already spending `90,000 crore on these schemes. The cost will go up, and will amount to 1.5 per cent of the GDP.
This expansion could have been done as a policy measure by the government three years ago but it chose not to do so. The new beneficiaries will have to be identified. The roll-out will take time. One of the amendments of the FSB is that the states are being given one year instead of giving six months to implement this. This is a good thing.
The coverage of distribution has been de-linked from poverty estimates. Malnutrition and hunger are different things. People are vulnerable to hunger. This is true for a substantial chunk of the population especially since 90 per cent of the workforce is in the informal sector.
In rural areas, where 75 per cent of the population has to be covered, the government is likely to follow the exclusion approach. Those with four-wheel vehicles in rural areas, to cite one example, will be excluded. In urban areas, those living in slums, juggi jhompris and resettlement areas can avail of PDS. The states will have to take the initiative.
As told to Rashme Sehgal Reetika Khera is an economist with IIT-Delhi and a social activist.
भोजन का अधिकार अभियान द्वारा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के संम्बंध में निम्नलिखित मांगे की गई थी | इन मांगों को लेकर अभियान ने अलग-अलग राजनैतिक दलों से, स्टेन्डिंग कमेटी सदस्यों से तथा व्यक्तिगत रूप से सांसदों से मिलकर अपनी मांगों के समर्थन में मुहिम चलाई | इस बार लगभग 70 सांसदों ने स्टेन्डिंग कमेटी को तथा सरकार को लिखकर इन मांगों को लेकर अपनी प्रतिबध्दता भी दिखाई | अभियान की निम्नलिखित प्रमुख मांगें थीं |
- एक सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली जो न केवल गेंहू व चावल की आपूर्ति करे बल्कि मोटा अनाज, दालें व तेल भी मुहैया कराए। (मात्रा आईसीएमआर के मापदंडों के मुताबिक)
- एकीकृत बाल विकास सेवाओं (आईसीडीएस) के तहत दी जाने वाली सभी सेवाओं का सभी बच्चों, किशोरियों, गर्भवती महिलाओं व स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए सार्वभौमिकीकरण (सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक)। आईसीडीएस की सेवाओं की गुणवत्ता में बेहतरी लाने के लिए ढांचागत सुविधाओं, पूरक पोषाहार, प्रशिक्षण व क्षमता संवर्द्धन, दूसरी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता की सुविधा सुनिश्चित करने के लिए बेहतर मापदंड तय करना।
- मध्यान्ह भोजन व आईसीडीएस के तहत सभी बच्चों के लिए स्थानीय स्तर पर तैयार पोषक व गर्म भोजन मुहैया कराना।
- सभी तरह के कुपोषण के प्रबंधन की व्यवस्था करना। इसमें पूरक पोषाहार, स्वास्थ्य देखरेख व उचित इलाज शामिल है। सामुदायिक स्तर पर व कार्यस्थलों पर क्रेश की व्यवस्था होनी चाहिए। जरूरी होने पर नरेगा के काम करने की जगह पर भी यह व्यवस्था कुपोषण से जूझने के लिए एक जरूरी पहल के तौर पर की जानी चाहिए।
- महिलाओं को कम से कम छह माह के लिए मातृत्व अवकाश तथा इस दौरान न्यूनतम मजदूरी की सुनिश्चितता |
- वंचित तबकों, बुजुर्ग, एकल महिलाओं व विकलांगों के लिए सामाजिक सुरक्षा पेंशन जो न्यूनतम मजदूरी के आधे से कम नहीं होनी चाहिए।
- सामुदायिक किचन जिसमें कम से कम एक बार सस्ती दरों पर गर्म भोजन मुहैया कराया जाए (गरीब, बेसहारा लोगों को यह मुफ्त मिले)। प्रवासियों को उनके निवास स्थान की परवाह किए बिना सभी अधिकार दिए जाने चाहिएं।
- सरकार को सभी तरह की आपातकालीन परिस्थितियों व आपदा (प्राकृतिक या मानव निर्मित), भुखमरी आदि मामलों तत्काल विषेश उपाय करने चाहिए। ऐसी जगहों पर कलेक्टर को खुद भ्रमण करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त कमिश्नरों द्वारा ऐसे परिवारों के पुनर्वास के लिए बताए गए खास उपायों को राज्य सरकारों को अपनाकर उन पर अमल सुनिश्चित कराना चाहिए।
- पूरी तरह सुधरी हुई व पहले से सशक्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य वाले पर्याप्त खाद्यान्न पदार्थ हों व अनाज खरीद, भंडारण व वितरण की विकेंद्रित व्यवस्था हो।
- कृषि में भी सुधार जरूरी जिसमें खेती में ज्यादा निवेश, फसलों का बीमा, कृषि सेवाओं में विस्तार, सिंचाई सुविधाओं में बढ़ोतरी व उत्पादन बढ़ाने के लिए जरूरी बिजली की सुनिश्चितता |
- जमीन तथा पानी का खाद्यान्न उत्पादन से गैरजरूरी हस्तांतरण को रोकना तथा किसानों की कृषि संसाधनों तक पहुंच व नियंत्रण सुनिश्चित करना।
- नगद ट्रांसफर व आधार कार्ड की जरूरत के नाम पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली की सुविधा से लोगों को वंचित किए जाने से बचाने के लिए जरूरी उपाय करना।
- पंचायत व नगरपालिका के स्तर तक विकेंद्रित शिकायत निवारण की पुख्ता व सशक्त व्यवस्था।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के दायरे में आने वाले और मौजूदा राशन कार्ड धारी परिवार (लाख में)
राज्य |
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेशके दायरे में अनुमानित (हजारमें)
|
मौजूदा कवरेज (30.06.2013 की तारीख में)
(पीडीएस के तहत)
|
बीपीएल |
अन्त्योदय |
कुल (बीपीएल+अंत्योदय) |
एपीएल |
कुल |
आंध्र |
114.21
|
199.93
|
15.58
|
215.51
|
29.94
|
245.45
|
अरुणाचल |
1.65
|
0.61
|
0.38
|
0.99
|
2.19
|
3.18
|
असम |
51.46
|
12.02
|
7.04
|
19.06
|
40.87
|
59.93
|
बिहार |
158.96
|
39.22
|
25.01
|
64.23
|
15.53
|
79.76
|
छत्तीसगढ़ |
44.20
|
11.56
|
7.19
|
18.75
|
26.42
|
45.17
|
दिल्ली |
14.51
|
1.67
|
1.50
|
3.17
|
20.25
|
23.42
|
गोवा |
1.18
|
0.17
|
0.14
|
0.31
|
3.60
|
3.91
|
गुजरात |
77.24
|
25.11
|
8.10
|
33.21
|
79.99
|
113.20
|
हरियाणा |
23.54
|
9.94
|
2.92
|
12.86
|
45.64
|
58.50
|
हिमाचल प्रदेश |
7.93
|
3.17
|
1.97
|
5.14
|
10.71
|
15.85
|
जम्मू–कश्मीर |
11.90
|
4.80
|
2.56
|
7.36
|
12.36
|
19.72
|
झारखंड |
49.55
|
14.76
|
9.18
|
23.94
|
5.15
|
29.09
|
कर्नाटक |
86.66
|
86.41
|
11.38
|
97.79
|
34.39
|
132.18
|
केरल |
35.78
|
14.47
|
5.96
|
20.43
|
59.01
|
79.44
|
मध्यप्रदेश |
112.66
|
52.48
|
15.82
|
68.30
|
79.92
|
148.22
|
महाराष्ट्र |
148.48
|
45.88
|
24.64
|
70.52
|
139.53
|
210.05
|
मणिपुर |
4.45
|
1.02
|
0.64
|
1.66
|
2.41
|
4.07
|
मेघालय |
3.90
|
1.13
|
0.70
|
1.83
|
2.66
|
4.49
|
मिजोरम |
1.43
|
0.42
|
0.26
|
0.68
|
1.89
|
2.57
|
नगालैंड |
2.99
|
0.77
|
0.47
|
1.24
|
1.16
|
2.40
|
ओडिशा |
75.13
|
36.78
|
12.65
|
49.43
|
34.58
|
84.01
|
पंजाब |
27.62
|
2.89
|
1.79
|
4.68
|
55.59
|
60.27
|
राजस्थान |
81.89
|
16.53
|
9.32
|
25.85
|
111.68
|
137.53
|
सिक्किम |
0.86
|
0.27
|
0.16
|
0.43
|
4.06
|
4.49
|
तमिलनाडु |
93.49
|
176.78
|
18.65
|
195.43
|
0.00
|
195.43
|
त्रिपुरा |
5.74
|
1.82
|
1.13
|
2.95
|
6.34
|
9.29
|
उत्तरप्रदेश |
250.85
|
65.84
|
40.95
|
106.79
|
331.19
|
437.98
|
उत्तराखंड |
12.23
|
3.07
|
1.91
|
4.98
|
19.39
|
24.37
|
पश्चिम बंगाल |
132.21
|
39.92
|
14.80
|
54.72
|
131.34
|
186.06
|
अंडमान-निकोबार |
0.16
|
0.08
|
0.04
|
0.12
|
0.92
|
1.04
|
चंडीगढ़ |
1.11
|
0.09
|
0.02
|
0.11
|
2.31
|
2.42
|
दादरा-नगर हवेली |
0.50
|
0.12
|
0.05
|
0.17
|
0.55
|
0.72
|
दमन एंड दीव |
0.30
|
0.03
|
0.01
|
0.04
|
0.33
|
0.37
|
लक्षदीप |
0.04
|
0.02
|
0.01
|
0.03
|
0.15
|
0.18
|
पुडुचेरी |
1.54
|
1.17
|
0.32
|
1.49
|
1.91
|
3.40
|
भारत |
1,658.03
|
870.95
|
243.25
|
1114.20
|
1313.96
|
2428.16
|
लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत परिवारों का कवरेज
मौजूदा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून
(केंद्र सरकार के आवंटन कोटे के अनुसार। कई राज्यों ने गरीबी के अनुपात से अपना कवरेज बढ़ाया)
राज्य |
बीपीएल का %
(गरीबी अनुपात 1993)
|
एनएफएसए के तहत कवरेज %
|
ग्रामीण
|
शहरी
|
आंध्र |
25.68
|
60.96
|
41.14
|
अरुणाचल |
40.86
|
66.31
|
51.55
|
असम |
40.86
|
84.17
|
60.35
|
बिहार |
54.96
|
85.12
|
74.53
|
छत्तीसगढ़ |
42.52
|
84.25
|
59.98
|
दिल्ली |
14.69
|
37.69
|
43.59
|
गोवा |
14.92
|
42.24
|
33.02
|
गुजरात |
24.21
|
74.64
|
48.25
|
हरियाणा |
25.05
|
54.61
|
41.05
|
हिमाचल प्रदेश |
40.86
|
56.23
|
30.99
|
जम्मू–कश्मीर |
40.86
|
63.55
|
47.1
|
झारखंड |
54.96
|
86.48
|
60.2
|
कर्नाटक |
33.16
|
76.04
|
49.36
|
केरल |
25.43
|
52.63
|
39.5
|
मध्यप्रदेश |
42.52
|
80.1
|
62.61
|
महाराष्ट्र |
36.86
|
76.32
|
45.34
|
मणिपुर |
40.86
|
88.56
|
85.75
|
मेघालय |
40.86
|
77.79
|
50.87
|
मिजोरम |
40.86
|
81.88
|
48.6
|
नागालैंड |
40.86
|
79.83
|
61.98
|
ओडिशा |
48.56
|
82.17
|
55.77
|
पंजाब |
11.77
|
54.79
|
44.83
|
राजस्थान |
27.41
|
69.09
|
53
|
सिक्किम |
41.43
|
75.74
|
40.36
|
तमिलनाडु |
35.03
|
62.55
|
37.79
|
त्रिपुरा |
40.86
|
74.76
|
49.54
|
उत्तरप्रदेश |
40.85
|
79.56
|
64.43
|
उत्तराखंड |
40.85
|
65.26
|
52.05
|
पश्चिम बंगाल |
35.66
|
74.47
|
47.55
|
अंडमान-निकोबार |
34.47
|
24.94
|
1.7
|
चंडीगढ़ |
11.35
|
38.64
|
47.25
|
दादरा-नगर हवेली |
50.84
|
84.19
|
51.54
|
दमन एंड दीव |
15.80
|
26.65
|
56.47
|
लक्षदीप |
25.04
|
35.3
|
33.56
|
पांडुचेरी |
37.40
|
59.68
|
46.94
|
भारत |
36.00
|
75
|
50
|
लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अनाज का आवंटन
मौजूदा और एनएफएसए के तहत (लाख टन में)
राज्य
|
मौजूदा उठाव
|
एनएफएसए की अनुसूची 4 के तहत संरक्षितउठाव
|
आंध्र |
30.65 |
32.1 |
अरुणाचल |
0.84 |
0.89 |
असम |
16.63 |
16.95 |
बिहार |
27.57 |
55.27 |
छत्तीसगढ़ |
10.85 |
12.91 |
दिल्ली |
5.45 |
5.73 |
गोवा |
0.60 |
0.59 |
गुजरात |
12.43 |
23.95 |
हरियाणा |
5.86 |
7.95 |
हिमाचल प्रदेश |
5.13 |
5.08 |
जम्मू–कश्मीर |
7.43 |
7.51 |
झारखंड |
10.22 |
16.96 |
कर्नाटक |
22.35 |
25.56 |
केरल |
14.29 |
14.25 |
मध्यप्रदेश |
26.53 |
34.68 |
महाराष्ट्र |
35.39 |
45.02 |
मणिपुर |
1.45 |
1.51 |
मेघालय |
1.83 |
1.76 |
मिजोरम |
0.66 |
0.66 |
नागालैंड |
1.40 |
1.38 |
ओडिशा |
20.58 |
21.09 |
पंजाब |
6.86 |
8.7 |
राजस्थान |
20.79 |
27.92 |
सिक्किम |
0.45 |
0.44 |
तमिलनाडु |
37.01 |
36.78 |
त्रिपुरा |
2.75 |
2.71 |
उत्तरप्रदेश |
66.45 |
96.15 |
उत्तराखंड |
4.57 |
5.03 |
पश्चिम बंगाल |
32.81 |
38.49 |
अंडमान-निकोबार |
0.16 |
0.16 |
चंडीगढ़ |
0.34 |
0.31 |
दादरा-नगर हवेली |
0.10 |
0.15 |
दमन एंड दीव |
0.05 |
0.07 |
लक्षदीप |
0.04 |
0.05 |
पांडुचेरी |
0.48 |
0.5 |
भारत |
431.02 |
549.26 |
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About the author: Vikas Samvad is a media advocacy organisation based in Bhopal and strives to bring real issues haunting peoples’ lives the mainstream
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