INDIA: बैगा समुदाय की परम्परागत खा़द्य सुरक्षा,पोषण एवं स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति 

An Article by the Asian Human Rights Commission

INDIA: बैगा समुदाय की परम्परागत खा़द्य सुरक्षा,पोषण एवं स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति

– विनोद पटेरिया

डिन्डोरी मध्यप्रदेश  का वह  जिला  है जिसके विषय में राज्य स्तर  के  अधिकारी  यह मानकर चलते हैं कि तो समस्याएं हैं ही, इसलिए कौन इनमे अपना सर खपाये राजनीतिक नेतृत्व के पास अपनी समस्याएं हैं, अब भला बच्चों का स्वास्थ्य,टीकाकरण माताओं की प्रसूति की सेवा आदि भला वोट बैंक कैसे बन सकती है !

बैगा जनजाति वह आदिम जनजाति है,जो कि ब्रिटिश शासन काल के प्रारंभ तक पहाड़ों के ऊपर वनों   में अपनी आदिम जीवन पद्धति के साथ निवास करती थी। जिन्हें शासन ने पहाड़ से नीचे लाकर ग्रामों में बसाया। इस प्रक्रिया के साथ ही उनकी समग्र पोषण व स्वास्थ्य ज्ञान परंपरा का क्षय प्रारंभ हो गया। इस प्रकार “बैगा”जिसका शाब्दिक अर्थ ही प्रकृति की शक्तियों का उपयोग कर इलाज करने वाला होता है और जो वास्तव में जड़ी-बूटी से स्वास्थ्य संरक्षण करता था  ! वही आज परम्परागत ज्ञान से वंचित हो गए हैं।

बैगा आदिम जनजाति प्रकृति की सबसे निकट समुदाय में से एक है। वे “बेवर” खेती पद्धति के द्वारा अन्न उत्पादन करते रहे हैं जिसे पर्यावरण के तथाकथित हितचिंतक वन का विनाश मानते है और उस पर रोक लगाने की बात करते है। जिसके परिणामस्वरूप बैगाओं की नई पीढी में बेवर खेती पद्धति के प्रति नकारात्मक रूझान बनता जा रहा है और वह आधुनिक कृषि से जुडी हाइब्रिड जी.एम. आदि की ओर आकर्षित हो रहे है। बैगा अपनी “बेवर” पद्धति की खेती में एक साथ कई बीज बोते थे। इससे कम वर्षा होने पर ज्यादा पानी वाली फसले तो मर जाती लेकिन कम पानी वाली फसलें जीवित रह जाती है इस प्रकार हमेशा खाद्य उत्पादन श्रंखला बनी रहती है। बैगा कोदो, कुटकी, समां उगाते रहे हैं। कोदो,कुटकी खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से सर्वाधिक विष्वसनीय खाद्य पदार्थ है। उन्हे उत्पाद पश्चात एक बार मिट्टी की कोठी में भंडारित करने के बाद वर्षो तक सुरक्षित किया जा सकता है। ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जब 40 से 50 वर्ष पश्चात खाद्य भण्डारों के खोलने पर कोदो या कुटकी का संग्रहित भण्डार उत्तम खाने योग्य आवस्था में प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त बैगा परम्परागत् रुप से कई तरह के फल फूल कन्द छाल व पत्तियां कई तरह की भाजी,पीहरी(मसरूम), ज्वार, मक्का से अपनी खाद्य आवष्यकता की पूर्ति के लिए करते रहे है। लेकिन डिन्डोरी मण्डला कर्वधा और बिलासपुर के मध्य अमरकण्टक रायपुर और जबलपुर इन उत्पादों के बडे बाजार बन गये है। यही से बाजार व्यवस्था से इनके शोषण की श्रंखला का अनचाहा विकास हुआ है। आंधाधुंध दोहन व शोषण से इस संपदा का लगभग विनाश  हो गया। उदाहरण के लिए बैगा को वनों में 12 से अधिक किस्म के कन्द मिलते थे,यह कन्द आवष्यकता पडने पर जंगल से खोदे जाते और उससे पूरे समुह का पेट भर जाता था । इनमें कनिहाकांदा 10 से 15 किलो तक का होता था। अब इन्हे ढुंढने पर भी प्राप्त करना कठिन हो रहा है। अत्यधिक दोहन से कई बीज ही खत्म हो गये हैं। अतः यदि कोई चाहे भी तो इसके पुर्नउत्पादन प्रक्रिया को चलाया जाना कठिन है अतः आवष्यकता  सामुदायिक बीज बैंक बनाने की है,जहां असानी से बैगा को परम्परागत् बीज उपलब्ध हो सके। आज आवष्यकता बेवर खेती के फायदे, पारम्परिक बीजों के गुण, उनका स्वास्थ्य पर प्रभाव, सामाजिक आर्थिक महत्व पर सामाजिक शिक्षण कार्यक्रम चलाकर पारम्परिक, मिश्रित और प्राकृतिक रूप से “बेवर” कृषि प्रणाली को पुनः उपयोग में लाने की जरुरत है जिससे बैगा की परम्परागत खाद्य सुरक्षा को  निरंतर रखा जा सके !

डि़डोरी जिले के करंजिया व बजाग विकासखण्ड के 52 गाँव जहाँ बैगा जाति सर्वाधिक, सघन रूप से निवास करते है, उन गांवों को सम्मलित रुप से बैगा चक कहा जाता हैं।

स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि करंजिया विकासखण्ड के बैगा चक स्थित बहारपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में आज भी किसी चिकित्सक की नियुक्ति नहीं है। एक चतुर्थ श्रेणी के स्वास्थ्य कर्मचारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र संचालित कर रहे हैं। आधारभूत सुविधा के नाम पर यहाँ फोन, अम्बुलेंस, जननी एक्सप्रेस सेवा जैसी कोई भी सुविधा नहीं है। समस्याएं तब और भी गंभीर हो जाती हैं जब प्रशासन द्वारा लक्ष्य प्राप्ती के लिए जंगल के अन्दर की बैगा महिलाओं को संस्थागत प्रसव के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में लाया जाता है, जहाँ कोई सुविधा ही नही है और जब मामला बिगड़ जाता है तो उन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र करंजिया भेजते हैं। जहाँ भी कोई महिला चिकित्सक ना होने के कारण उसे पुनः जिला चिकित्सालय डिन्डोरी रेफर कर दिया जाता है।

दो वर्ष पूर्व एक ही माह में ग्राम खारिदिह में रम्मू बैगा की पत्नी और गर्भस्थ शिशु मारे गये। फिर कहानी को दौहराते हुए पवन की पत्नी और गर्भस्थ शिशु यानि जच्चा और बच्चा दोनों ही मारे गए। यह  सिलसिला निरंतर जारी है, इसी जून 2013 में कुंवर सिंह ने अपने शिशु को खोया, तो वही जुलाई में  कौशल्या बाई ने अपने शिशु जन्म देने के बाद शिशु का चेहरा भी नही देख पाई। यह सब कुछ हुआ संस्थागत प्रसव के लक्ष्य पूर्ति हेतु किये गये गैरनियोजित व अनियमित प्रयासों के परिणाम स्वरुप।

टीकाकरण की नियमितता व प्रभावशीलता को इस तरह समझा जा सकता है कि चैरादादर स्थित उपस्वास्थ्य केंद्र सड़क मार्ग से 27 से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, यहाँ बारिश के समय किसी भी तरह पहुंचना कठिन और असंभव है। उपस्वास्थ्य केंद्र में कोई फ्रिज की व्यवस्था नहीं है, फिर भी टीकाकरण नियमित हो रहा है। यहाँ की “कोल्ड चैन” कैसे चलती है यह रहस्य का विषय है।

बैगा अपनी परम्परागत जड़ी -बूटी के ज्ञान में ही अपने बच्चों की स्वास्थ्य सुरक्षा देखते हैं लेकिन अब स्थिति यह है कि उनकी परम्परागत् पद्धति हाथ से छूट ही गई है और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बहुत ही जर्जर है। ऐसे में बैगा समुदाय के सामने यह सवाल  मुंह बाये खड़ी है कि अपने स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं के लिए खाना  जायें ?

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About the Author: Mr. Vinod Pateria is a Rights Activist working with Adivasi Dalit Morcha. He is based in Dindori district of Madhya Pradesh.

About AHRC: The Asian Human Rights Commission is a regional non-governmental organisation that monitors human rights in Asia, documents violations and advocates for justice and institutional reform to ensure the protection and promotion of these rights. The Hong Kong-based group was founded in 1984.

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Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-136-2013-HI
Countries : India,